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गृहस्थ वर्ग पर ही अधिक है और यदि वह अपने इस दायित्व की उपेक्षा करेगा, तो अपनी संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा करने में असफल रहेगा।
यह तो हुआ केवल समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से श्रावकवर्ग का महत्व एवं उत्तरदायित्व। किन्तु न केवल सामाजिक दृष्टि से अपितु आध्यात्मिक एवं साधनात्मक दृष्टि से भी गृहस्थ का स्थान उतना निम्न नहीं हैं, जितना कि सामान्यतया मान लिया जाता हैं। सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से निर्देश है - ‘आरम्भ नो आरम्भ' (गृहस्थ धर्म) का यह स्थान भी आर्य हैं तथा समस्त दुःखों का अन्त करने वाला मोक्षमार्ग है। यह जीवन भी पूर्णतया सम्यक् एवं साधु है। मात्र यही नहीं, उत्तराध्ययन सूत्र में तो स्पष्ट रूप से यहाँ तक कह दिया है कि चाहे सभी समान्य गृहस्थों की अपेक्षा श्रमणों को श्रेष्ठ मान लिया जाये किन्तु कुछ गृहस्थ ऐसे भी है जो श्रमणों की अपेक्षा संयम के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। बात स्पष्ट और साफ है कि आध्यात्मिक साधना का सम्बन्ध न केवल वेश से है
और न केवल आचार के बाह्य नियमों से, अपितु समाज या संघ- व्यवस्था की दृष्टि में बाह्य आचार - नियमों का पालन आवश्यक है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट रूप से यह बात भी स्वीकार कर ली गयी है कि गृहस्थ जीवन से भी निर्वाण को प्राप्त किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में मरूदेवी और भरत के उदाहरण लोकविश्रुत हैं। यदि गृहस्थ धर्म से भी परिनिर्वाण या मुक्ति सम्भव है- तो इस विवाद का कोई अधिक मूल्य नहीं रह जाता कि मुनिधर्म और गृहस्थ धर्म में साधना का कौनसा मार्ग श्रेष्ठ हैं। वस्तुतः आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में श्रेष्ठता और निम्नता का आधार आध्यात्मिक जागरूकता, अप्रमत्तता
और निराकुलता हैं, जिसने अपनी विषय वासनाओं और कषायों पर नियन्त्रण पा लिया है, जिसका चित्त निराकुल और शान्त हो गया है, जो अपने कर्तव्यपथ पर पूरी ईमानदारी से चल रहा है फिर चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि, उसकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में न तो वेश महत्वपूर्ण हैं और न बाह्य आचार, अपितु उसमें महत्वपूर्ण हैं अन्तरात्मा की निर्मलता और विशुद्धता। अन्तर की निर्मलता ही साधना का मूलभूत आधार हैं।
गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठता का प्रश्न
गृहस्थधर्म और मुनिधर्म में यदि साधना की दृष्टि से हम श्रेष्ठता की बात करें तो भी वस्तुतः गृहस्थ जीवन ही अधिक श्रेष्ठ प्रतीत होगा। वीतरागता की साधना के लिए संन्यास एक निरापद मार्ग हैं, क्योंकि गृहस्थ जीवन में रहकर वीतरागता की साधना
श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता:2
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