________________
गृहस्थ के विकास की भूमिकाएँ
जैनदर्शन निवृत्ति - परक है, लेकिन गृही जीवन से समग्र रूप में तत्काल निवृत्त हो जाना जन-साधारण के लिए सुलभ नहीं होता। अत: निवृत्ति की दिशा में विभिन्न स्तरों का निर्माण आवश्यक है, जिससे व्यक्ति क्रमशः अपना नैतिक विकास करता हुआ साधना के अन्तिम आदर्श को प्राप्त कर सके। जैन- विचारणा में गृही- जीवन में साधना
विकास क्रम कैसे आगे बढ़ता है, इसका सुन्दर चित्रण हमें “ श्रावकप्रतिमा" की धारणा में मिलता है | श्रावक प्रतिमाएँ गृही - जीवन में की जानेवाली साधना की विकासोन्मुख श्रेणियाँ (भूमिकाएँ) हैं, जिन पर क्रमशः चढ़ता हुआ साधक अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर जीवन के परमादर्श " स्वस्वरूप" को प्राप्त कर लेता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों विचारणाओं में श्रावक प्रतिमाएँ (भूमिकाएँ) ग्यारह हैं। श्वेताम्बर सम्मत उपासक भूमिकाओं के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - ( 1 ) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) प्रोषध, ( 5 ) नियम, (6) ब्रह्मचर्य, ( 7 ) सचित्तत्याग, (8) आरम्भत्याग, ( 9 ) प्रेष्यपरित्याग, ( 10 ) उद्दिष्टभक्त त्याग और ( 11 ) श्रमणभूता दिगम्बर सम्मत क्रम एवं नाम इस प्रकार हैं - ( 1 ) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) प्रौषध, ( 5 ) सचित्तत्याग, (6) रात्रिभोजन एवं दिवामैथुन विरति, ( 7 ) ब्रह्मचर्य, (8) आरम्भत्याग, ( 9 ) परिग्रहत्याग, ( 10 ) अनुमति त्याग और ( 11 ) उद्दिष्ट -
त्याग ।
-
ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप 1. दर्शन - प्रतिमा :- साधक की अध्यात्म मार्ग की यथार्थता के सम्बन्ध दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा होना ही दर्शनप्रतिमा है। विशुद्धि की प्रथम शर्त है क्रोध, मान, माया और लोभ, इस कषाय- चतुष्क की तीव्रता में मन्दता । जब तक इन कषायों का अनन्तानुबन्धी रूप समाप्त नहीं होता, दर्शनविशुद्धि नहीं होती। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में मानवीय विवेक को अपहरित कर लेने वाले क्रोधादि संवेगों के तीव्र आवेग ही प्रज्ञा-शक्ति को कुण्ठित कर देते हैं। अत: जब तक इन संवेगों या तीव्र आवेगों पर विजय प्राप्त नहीं की जाती, हमारी विवेकशक्ति या प्रज्ञा सम्यक् रूप से अपना कार्य नहीं कर सकती । दर्शनप्रतिमा में साधक इन कषायों की तीव्रता को कम कर सम्यग्दर्शन अर्थात यथार्थ दृष्टिकोण प्राप्त करता है ।
श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 28
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org