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9. सामायिक व्रत :-- सामायिक समभाव की साधना है। सुख-दुःख, हानि-लाभ, जयपराजय में चित्तवृत्ति का समत्व ही सामायिक है। आज के युग में जब मनुष्य मानसिक विक्षोभ और तनावों की स्थिति में जी रहा है तब सामायिक व्रत की साधना की उपयोगिता सुस्पष्ट हो जाती है। वर्तमान में मात्र वेश परिवर्तन करके कुछ समय के लिए बाह्य हिंसक प्रवृत्तियों से दूर हो जाना सामायिक का बाह्य रूप तो हो सकता है, किन्तु वह उसकी अन्तरात्मा नहीं है। आज हमारी सामायिक की साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्राय होती जा रही है और वह एक रूढ़ क्रिया मात्र बन कर रह गयी है। सामायिक में मानसिक तनावों के निराकरण और चित्तवृत्ति को शान्त और निराकुल बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति विकसित की जाये, यह आज के युग की महती आवश्यकता है। 10. देशावकासिक व्रत :- इस व्रत का मुख्य उद्देश्य आंशिक रूप से गृहस्थ-जीवन से निवृति प्राप्त करना है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से परिवर्तन प्रिय है। घर-गृहस्थी के कोलाहपूर्ण
और अशान्त जीवन से निवृत्ति लेकर एक शान्त जीवन का अभ्यास एवं आस्वाद करना ही इसका लक्ष्य है। वैसे भी हम सप्ताह में एक दिन अवकाश मनाते हैं। देशावकासिक व्रत इसी साप्ताहिक अवकाश का अध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में उपयोग है और इस दृष्टि से इसकी सार्थकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 11. प्रौषधोपवास व्रत :- यह व्रत भी मुख्य रूप से निवृत्तिपरक जीवन की साधना के निमित्त है। उपवासपूर्वक विषयवासनाओं पर नियन्त्रण रखना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इसे हम एक दिन के लिए ग्रहण किया हुआ श्रमण-जीवन भी कह सकते है। इसकी सार्थकता वैयक्तिक साधनात्मक जीवन की दृष्टि से ही आँकी जा सकती है। 12. अतिथि-संविभाग व्रत :- अतिथि-संविभाग व्रत गृहस्थ के सामाजिक दायित्व का सूचक है। अपने और अपने परिजनों के उदरपोषण के साथ-साथ गृहस्थ पर निवृत्त साधकों और समाज के असहाय एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के भरण-पोषण का दायित्व भी है। प्रस्तुत व्रत का उद्देश्य गृहस्थ में सेवा और दान की वृत्ति को जागृत करना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारा जीवन पारस्परिक सहयोग और सहभागिता के आधार पर ही चलता है। दूसरों के सुख-दु:ख में सहभागी बनना और अभावग्रस्तों, पीड़ितों और दीनदुःखियों की सेवा करना- यह गृहस्थ का अनिवार्य धर्म है। यद्यपि आज इस प्रवृत्ति को, भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन देने वाली मानकर अनुपयुक्त कहा जाता है, किन्तु जब तक समाज में अभावग्रस्त, पीड़ित और रोगी व्यक्ति हैं- सेवा और सहकार की आवश्यकता अपरिहार्य रूप से बनी रहेगी और यदि शासन इस दायित्व को नहीं सम्भालता है तो यह प्रत्येक गृहस्थ
श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 26
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