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धीरे समाप्त होती जा रही हैं और अब एक दिन ऐसा भी आएगा जब हम अपनी आर्थिक सम्पन्नता से हाथ धो बैठेंगे। यदि हम सजग नहीं हुए तो भविष्य हमें क्षमा नहीं करेगा। 4. वेश्यागमन :- श्रावक के सप्त दुर्व्यसन त्याग के अन्तर्गत वेश्यागमन के त्याग का भी विधान किया गया है। यह सुनिश्चित सत्य है कि वेश्यागमन न केवल समाजिक दृष्टि से अपितु आर्थिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अवांछनीय माना गया है । उसके अनौचित्य पर यहाँ कोई विशेष चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नही होता। सामाजिक सदाचार और पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए वेश्यागमन की प्रवृत्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है । यद्यपि इस प्रवृत्ति के जो दूसरे रूप सामने आ रहे है, वे उसकी अपेक्षा अधिक चिन्तनीय हैं, यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि चाहे खुले रूप में वेश्यावृत्ति पर अंकुश लगा हो, किन्तु छद्म-रूप में यह प्रवृत्ति बढ़ी ही है। जैन समाज के सम्पन्न वर्ग में इन छद्म रूपों के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, जिस पर अंकुश लगाना आवश्यक है।
5. परस्त्रीगमन :- परस्त्रीगमन परिवार एवं समाज व्यवस्था का घातक है । इसके परिणाम स्वरूप न केवल एक ही परिवार का पारिवारिक जीवन दूषित एवं अशांत बनता है, अपितु अनेक परिवारों के जीवन अशान्त बन जाते हैं । वेश्यावृत्ति की अपेक्षा यह अधिक दोष-पूर्ण हैं । क्योंकि इसमें छल-छद्म और जीवन का दोहरापन भी जुड़ जाता हैं । अतः सामाजिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा अपराध है । आज कामवासना की तृप्ति का यह छद्म रूप अधिक फैलता जा रहा है। पाश्चात्य देशों की वासनात्मक उच्छृंखला का प्रभाव हमारे देश में भी हुआ है। क्लबों और होटलों के माध्यम से यह विकृति अधिक तेजी से व्याप्त होती जा रही है । जैन समाज का भी कुछ सम्पन्न एवं धनी वर्ग इसकी गिरफ्त में आने लगा है। यद्यपि अभी समाज का बहुत बड़ा भाग इस दुर्गुण से मुक्त है किन्तु धीरे-धीरे फैल रही इस विकृति के प्रति सजग होना आवश्यक है । 6. शिकार : - मनोरंजन के निमित्त अथवा मांसाहार के लिए जंगल के प्राणियों का वध करना शिकार कहा जाता है । यह व्यक्ति को क्रूर बनाता है । यदि मनुष्य को मानवीय कोमल गुणों से युक्त बनाये रखना है तो इस वृत्ति का त्याग अपेक्षित है। आज शासन द्वारा भी वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए शिकार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा रहा है अतः इस प्रवृत्ति के त्याग का औचित्य निर्विवाद है । आज हम इस बात को गौरव से कह सकते हैं कि जैन समाज इस दुर्गुण से मुक्त है, किन्तु आज सौन्दर्य-प्रसाधनों जिनका उपभोग समाज में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, इस निमित्त अव्यक्त रूप से हो रही
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श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 15
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