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________________ - लेना होगा। जैन धर्म के अनुसार श्रावकत्व की भूमिका को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति को क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार कषायों की अतितीव्र, अनियन्त्रित, नियन्त्रित और अत्यल्प इन चार अवस्थाओं में से प्रथम दो अवस्थओं पर विजय - प्राप्ति को अपरिहार्य माना गया है। साधक जब तक अपने क्रोध, मान, माया और लोभ पर नियन्त्रण रखने की क्षमता को विकसित नहीं कर लेता, तब तक वह श्रावकत्व की भूमिका को प्राप्त करने योग्य नहीं होता है। श्रावक धर्म के पालन के लिए उपर्युक्त चतुर्विध कषायों पर नियन्त्रण की क्षमता का विकास आवश्यक है। जब तक व्यक्ति अपने क्रोध, मान, माया, लोभ- इन चार कषायों पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण कर पाने में अक्षम होता हैं, तब तक वह श्रावक धर्म की साधना नहीं कर सकता। क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण कर लेने की क्षमता का विकास हो जाना ही श्रावक धर्म की उपलब्धि का प्रथम चरण है । वर्तमान सन्दर्भों में इन चारों अशुभ आवेगों के नियन्त्रण की उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । जैनागमों के अनुसार क्रोध का तत्व पारस्परिक सौहार्द (प्रीति) को समाप्त करता है और सौहार्द के अभाव में एक दूसरे के प्रति सन्देह और आशंका होती है। यह स्पष्ट हैं कि सामाजिक जीवन में पारस्परिक अविश्वास और आशंकाओं के कारण असुरक्षा का भाव पनपता है और फलतः हमें अपनी शक्ति का बहुत कुछ अपव्यय करना पड़ता हैं । आज अन्तर्राष्ट्रिय क्षेत्र में जो शस्त्र-संग्रह और सैन्य - बल बढ़ाने की प्रवृत्ति परिलक्षित हो रही है और जिस पर अधिकांश राष्ट्रों की राष्ट्रीय आय का 50 प्रतिशत से अधिक व्यय हो रहा है, वह सब इस पारस्परिक अविश्वास का परिणाम है | आज धार्मिक और सामाजिक जीवन में जो असहिष्णुता है, उसके मूल में घृणा, विद्वेष एवं आक्रोश का तत्त्व ही है । यह ठीक है कि व्यक्ति जब तक परिवार, समाज एवं राष्ट्र से जुड़ा है, तब तक उसमें किसी सीमा तक क्रोध या आक्रोश होना आवश्यक है, अन्यथा उसका अस्तित्व ही खतरें में होगा, किन्तु उसे नियन्त्रण में होना चाहिये और अपरिहार्य स्थिति में ही उसका प्रकटन होना चाहिए । हमारे पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धों में दरार का दूसरा महत्वपूर्ण कारण व्यक्ति का अहंकार या घमंड है। एक गृहस्थ के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी अस्मिता एवं स्वाभिमान का बोध रखे, किन्तु उसे अपने अहंकार पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। समाज में जो विघटन या टूटना पैदा होती है, उसका मुख्य कारण समाज के कर्णधारों, फिर चाहे वे गृहस्थ हो या मुनि, का अहंकार ही हैं । अहंकार पारस्परिक Jain Education International श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 9 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003247
Book TitleShravak Dharm aur Uski Prasangika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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