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________________ मूल्य होता है। जैन अध्यात्मवाद आत्मोपलब्धि के लिए पदार्थों के प्राति ममत्व बुद्धि का त्याग आवश्यक मानता है । उसके अनुसार ममता के विर्सजन से ही समता (Equanimity) का सर्जन होता है । ' जैन अध्यात्मवाद का लक्ष्य आत्मोपलब्धि जैनधर्म में ममत्व के विसर्जन को ही आत्मोपलब्धि का एकमात्र उपाय इसलिए माना गया है कि जब तक व्यक्ति में ममत्व बुद्धि या आसक्ति भाव रहता है तब तक व्यक्ति की दृष्टि 'स्व' में नहीं अपितु 'पर' अर्थात् पदार्थ में केन्द्रित रहती है। वह पर में स्थित होता है। यह पदार्थ केन्द्रित दृष्टि ही या पर में स्थित होना ही भौतिकवाद का मूल आधार है। जैन दार्शनिकों के अनुसार 'पर' अर्थात् आत्मेतर वस्तुओं में अपनत्व का भाव और पदार्थ को परम मूल्य मानना, यही भौतिकवाद या मिथ्या दृष्टि का लक्षण है। आत्मवादी या अध्यात्मवादी व्यक्ति की दृष्टि पदार्थ - केन्द्रित न होकर आत्म- केन्द्रित होती है। वह आत्मा को ही परम मूल्य मानता है और अपने स्वस्वरूप या स्वभावदशा की उपलब्धि को ही अपनी साधना का लक्ष्य बनाता है इसे ही जैन पारिभाषिक शब्दावली में सम्यक् दृष्टि कहा गया है। भौतिकवाद मिथ्यादृष्टि है और अध्यात्मवाद सम्यक् दृष्टि है। आत्मा का स्वरूप एवं साध्य यहाँ स्वाभविकरूप से यह प्रश्न उठ सकता है कि जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप क्या है ? आचारांगसूत्र में आत्मा के स्वरूप का स्पष्ट लक्षण का करते हुए कहा गया है कि जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। इस प्रकार ज्ञाताभाव में स्थित होना ही स्व स्वभाव में स्थित होना है । आधुनिक मनोविज्ञान में चेतना के तीन पक्ष माने गये हैं - ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक, उसमें भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष वस्तुतः भोक्ताभाव और कर्त्ताभाव के सूचक है। जब तक आत्मा कर्त्ता (doer) या भोक्ता ( enjoyer) होता है तब तक वह स्व स्वरूप hi उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि यहाँ चित्त - विकल्प या आकांक्षा बनी रहती है। अतः उसके द्वारा चित्त-समाधि या आत्मोपलब्धि संभव नहीं है । विशुद्ध ज्ञाताभाव या साक्षी भाव ही ऐसा तथ्य है जो आत्मा को निराकुल समाधि की अवस्था में स्थित कर दुःखों Jain Education International जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में : ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003246
Book TitleAdhyatmavada aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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