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________________ है। अध्यात्मवाद के अनुसार देहादि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति समत्व बुद्धि का विसर्जन साधना का मूल उत्स है। ममत्व का विसर्जन और ममत्व का सृजन यही जीवन का परममूल्य है। जैसे ही ममत्व का विसर्जन होगा समत्व का सृजन होगा, और समत्व का सृजन, होगा तो शोषण और संग्रह की सामाजिक बुराइयां समाप्त होंगी। परिमाणतः व्यक्ति आत्मिक शान्ति का अनुभव करेगा। अध्यात्मवादी समाज में विज्ञान तो रहेगा किन्तु उसका उपयोग संहार में न होकर सृजन में होगा, मानवता के कल्याण में होगा। अन्त में पुनः मैं यही कहना चाहूँगा कि विज्ञान के कारण, जो एक संत्रास की स्थिति मानव समाज में दिखाई दे रही है, उसका मूलभूत कारण विज्ञान नहीं, अपितु व्यक्ति की संकुचित और स्वार्थवादी दृष्टि है। विज्ञान तो निरपेक्ष है वह न अच्छा है और न बुरा। उसका अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर करता है और इस उपयोग का निर्धारण व्यक्ति के अधिकार की वस्तु है। अतः आज विज्ञान को नकारने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है उसे सम्यकदिशा में नियोजित करने की और यह सम्यक दिशा अन्य कुछ नहीं, यह सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की व्यापक आकांक्षा ही है और इस आकांक्षा की पूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में है। काश मानवता इन दोनों में समन्वय कर सके, यही कामना है। जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में : २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003246
Book TitleAdhyatmavada aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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