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ही परस्पर सहयोग के अभाव में दावानल में जल मरते हैं, ठीक इसी प्राकार यदि आज विज्ञान और अध्यात्म परस्पर एक दूसरे के पूरक नहीं होंगे तो मानवता अपने ही द्वारा लगाई गई विस्फोटक शस्त्रों की इस आग में जल मरेगी। बिना विज्ञान के संसार में सुख नहीं आ सकता और बिना अध्यात्म के शांति नहीं आ सकती । मानव समाज की सुख (Pleasure) और शांति (Peace) के लिए दोनों का परस्पर सहयोग आवश्यक है। वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग मानव कल्याण में हो या मानव संहार में, इस बात का निर्धारण विज्ञान से नहीं, आत्मज्ञान या अध्यात्म से करना होगा । अणुशक्ति का उपयोग मानव के संहार में हो या मानव के कल्याण में, यह निर्णय करने का अधिकार उन वैज्ञानिकों को भी नहीं है, जो सत्ता, स्वार्थ और समृद्धि के पीछे अन्धे राजनेताओं के दास हैं। यह निर्णय तो मानवीय विवेक सम्पन्न निःस्पृह साधकों को ही करना होगा । यह सत्य है कि विज्ञान के सहयोग से तकनीक का विकास हुआ और उसने मानव के भौतिक दुःखों को बहुत कुछ कम कर दिया । किन्तु दूसरी और उसने मारक शक्ति के विकास के द्वारा भय या संत्रास की स्थिति उत्पन्न कर मानव की शान्ति को भी छीन लिया है । आज मनुष्य जाति भयभीत और संत्रस्त है। आज वह विस्फोटक अस्त्रों के ज्वालामुखीपर खड़ी है, जो कब विस्फोट कर हमारे अस्तित्व को निगल लेगी, यह कहना कठिन है। आज हमारे पास जिन संहारक अस्त्रों का संग्रह है वे पृथ्वी के सम्पूर्ण जीवन को अनेक बार समाप्त कर सकते हैं।
पूज्य विनोबा जी लिखते हैं 'जो विज्ञान एक ओर क्लोरोफार्म खोज करता है जिससे करूणा का कार्य होता है । वही विज्ञान अणु अस्त्रों की खोज करता है जिससे भयंकर संहार होता है। एक बाजू सिपाही को जख्मी करता है दूसरा बाजू उसको दुरुस्त करता है ऐसा गोरख धन्धा आज विज्ञान की मदद से चल रहा है। इस हालत में विज्ञान का सारा कार्य उसको मिलने वाले मार्गदर्शन पर आधारित है । उसे जैसा मार्गदर्शन मिलेगा, वह वैसा कार्य करेंगा। ४२
यदि विज्ञान पर सत्ता के आकांक्षियों का, राजनीतिज्ञों का और अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वालों का अधिकार होगा तो वह मनुष्य जाति का संहार ही बनेगा। किन्तु इसके विपरीत यदि विज्ञान पर मानव मंगल के द्रष्टा अनासक्त ऋषियों-महर्षियों का
जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में :
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