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अध्यात्मवाद और विज्ञान ( जैन धर्म के विशेष सन्दर्भ मे ) - डा. सागरमल जैन
मानव जाति को दुःखों से मुक्त करना ही भगवान् महावीर का प्रमुख लक्ष्य था । उन्होने इस तथ्य को गहराई से समझने का प्रयत्न किया कि दुःख का मूल किसमें है। इसे स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि समस्त भौतिक और मानसिक दुःखों का मूल व्यक्ति की भोगासक्ति में है । यद्यपि भौतिकवाद मनुष्य की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा दुःखों के निवारण का प्रयत्न करता है किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता, जिससे दुःख का यह स्रोत प्रस्फुटित होता है। भौतिक-वाद के पास मनुष्य की तृष्णा को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। वह इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा मानवीय आकांक्षाओं को परितृप्त करना चाहता है किन्तु यह अग्नि में डाले गये घृत के समान उसे परिशान्त करने की अपेक्षा बढाता ही है। उत्तराध्ययनसूत्र में बहुत ही स्पष्टरूप से कहा गया है कि चाहे स्वर्ण और रजत के कैलास के समान असंख्य पर्वत भी खडे हो जाये किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूरा करने में असमर्थ है। न केवल जैनधर्म अपितु सभी आध्यात्मिक धर्मों ने एकमत से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है, किन्तु तृष्णा की समाप्ति का उपाय इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं है । भौतिकवाद हमें सुख और सुविधा के साधन तो दे सकता है, किन्तु वह मनुष्य की आसक्ति या तृष्णा का निराकरण नहीं कर सकता। इस दिशा मे उसका प्रयत्न तो टहनियों को काटकर जड को सींचने के समान है। जैन आगमों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है, उसकी पूर्ति सम्भव नहीं है। यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तज्जनित दुःखों से मुक्त करना चाहते है तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का त्याग करके आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा।
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जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में : १
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