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________________ नारी को, उन्हीं ऋचाओं के अध्ययन से वंचित कर दिया गया। उसके कार्यक्षेत्र को सन्तान - उत्पादन, सन्तान - पालन, गृहकार्य सम्पादन तथा पति की सेवा तक सीमित करके उसे घर की चारदिवारी में कैद कर दिया गया । हिन्दू धर्म में नारी की यह दुर्दशा मुस्लिम आक्रान्ताओं के आगमन के साथ क्रमशः बढ़ती ही गयी। रामचरितमानस के रचयिता युग-कवि तुलसीदास को भी कहना पड़ा कि 'ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी ' । हिन्दु धर्म का मध्ययुग का इतिहास इस बात का साक्षी है कि बहुपत्नीप्रथा और सतीप्रथा जैसी क्रूर और नृशंस प्रथाओं ने जन्म लेकर नारी के महत्त्व और मूल्य को प्रायः समाप्त ही कर दिया था । वर्तमान समाज व्यवस्था में भी हिन्दू धर्म में नारी को पुरूष के समकक्ष गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हैं यह कहना कठिन है, यद्यपि नारी चेतना का पुनः जागरण हुआ है किन्तु यह भी भय हैं कि पश्चिम के अन्धानुकरण में वह कहीं गलत दिशा में मोड़ न ले ले । हिन्दूधर्म में यद्यपि सन्यास की अवधारणा को स्थान मिला हुआ है और प्राचीनकाल से ही हिन्दू सन्यासिनियों के भी उल्लेख मिलने लगते हैं, फिर भी सन्यासिनियों के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में हिन्दूधर्मग्रन्थ प्रायः मौन हो हैं । हिन्दूधर्म में प्राचीनकाल से लेकर आज तक यत्र-तत्र किन्हीं सन्यासियों की उपस्थिति के उल्लेख को छोड़कर सन्यासिनियों का एक सुव्यवस्थित वर्ग बना हो ऐसा नहीं देखा जाता हैं । यही कारण हैं कि हिन्दू धर्म में विधवाओं, परित्यक्ताओं और अविवाहित स्त्रियों के लिए सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए कोई आश्रयस्थल नहीं बन सका और वे सदैव ही पुरूष के अत्याचारों और प्रताड़नाओं का शिकार बनी । चाहे सिद्धान्तरूप में स्त्रियों के सन्दर्भ में हिन्दू धर्म में कुछ आदर्शवादी उद्घोष हमें मिल जाएँ, किन्तु व्यावहारिक जीवन में हिन्दू धर्म में स्त्रियाँ उपेक्षा का ही विषय बनी रहीं । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि हिन्दू धर्म की अपेक्षा जैन धर्म में नारी की स्थिति और भूमिका दोनों ही अधिक महत्त्वपूर्ण रही । यों तो जैनधर्म हिन्दूधर्म के सहवर्ती धर्म के रूप में ही विकसित हुआ है और इसीलिए प्रत्येक काल में वह हिन्दूधर्म से प्रभावित रहा है। हिन्दूधर्म के नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण और उसके दुष्परिणामों का शिकार वह भी बना है । जिस प्रकार हिन्दूधर्म में वेद"I ऋचाओं की निर्माता स्त्री को उनके अध्ययन से वंचित कर दिया गया, उसी प्रकार जैन धर्म में भी स्त्री के लिए न केवल दृष्टिवाद के अध्ययन को अपितु आगमों के Jain Education International जैन धर्म में नारी की भूमिका : 37 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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