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________________ भारतीय समाज मे यह अवधारणा बन चुकी थी। ज्ञाताधर्मकथा में देवदत्ता गणिका को चौंसठ कलाओं में पण्डित, चौंसठ गणिका गुण (काम-कला) से उपेत, उन्तीस कार से रमण करने मे प्रवीण, इक्कीस रतिगुणों से युक्त, बत्तीस पुरूषोपचार में कुशल, नवांगसूत्र प्रतिबोधन और अठारह देशी भाषाओं में विशारद कहा है। इन सूचियों को देखकर स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि स्त्रियों को उनकी प्रकृति और दायित्व के अनुसार भाषा, गणित, लेखनकला आदि के साथ-साथ स्त्रियोचित त्य, संगीत और ललितकलाओं तथा पाक-शास्त्र आदि में शिक्षित किया जाता था। यद्यपि आगम और आगमिक व्याख्याएँ इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं हैं कि ये शेक्षा उन्हें घर पर ही दी जाती थी अथवा वे गुरूकुल में जाकर इनका अध्ययन करती थी। स्त्री-गुरूकुल के सन्दर्भ के अभाव से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी शक्षा की व्यवस्था घर पर ही की जाती थी। सम्भवत: परिवार की प्रौढ़ महिलाएं ही उनकी शिक्षा की व्यवस्था करती थी, किन्तु सम्पन्न परिवारों में इस हेतु विभिन्न देशों की दासियों एवं गणिकाओं की भी नियुक्ति की जाती थी, जो इन्हें इन कलाओं में गारंगत बनाती थी। आगमिक व्याख्याओं में हमें कोई भी ऐसा सन्दर्भ उपलब्ध नहीं हुआ, जो सहशिक्षा का निर्देश करता हो। नारी के गृहस्थ जीवन सम्बन्धी इन शिक्षाओं के प्राप्त करने के अधिकार में प्रागैतिहासिक काल से लेकर आगमिक व्याख्याओं के काल तक कोई विशेष परिवर्तन हुआ हों, ऐसा भी हमें ज्ञात नहीं होता मात्र वेषयवस्तु में क्रमिक विकास हुआ होगा। यद्यपि लौकिक शिक्षा में स्त्री और पुरूष की प्रकृति एवं कार्य के आधार पर अन्तर किया गया था, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं हैं कि स्त्री और पुरूष में कोई भेद-भाव किया जाता था। नारी को उसके आवश्यक सभी पक्षों की सम्पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। यद्यपि यह सत्य है कि उस युग में स्त्री और पुरूष दोनों के लिए कर्म-प्रधान शिक्षा का ही विशेष प्रचलन था। जहाँ तक धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षा का प्रश्न है वह उन्हें भिक्षुणियों के द्वारा प्रदान की प्रदान की जाती थी। सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि जैन परम्परा में भिक्षु को स्त्रियों को शिक्षा देने का अधिकार नहीं था।" वह केवल स्त्रियों और पुरूषों की संयुक्त सभा में उपदेश दे सकता था। सामान्यतया भिक्षुणियों और गृहस्थ उपासिकाओं दोनों को ही स्थविरा भिक्षुणियों के द्वारा ही शिक्षा दी जाती थो। यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में हमें कुछ सूचनायें उपलब्ध होती हैं जिनके जैन धर्म में नारी की भूमिका :29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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