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जैन धर्म में नारी की भूमिका
डॉ. सागरमल जैन
भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण परम्परा विवेक प्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है। उसने सदैव ही विषमतावादी और वर्गवादी अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया। जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का ही एक अंग है अत: उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया और स्त्री के दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर उसे पुरूष के समकक्ष ही माना गया है। फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म और संस्कृति का विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरूष प्रधान परिवेश में ही हुआ हैं, फलत: क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहभागी ब्राह्मण परम्परा के व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह सकी और उसमें भी विभिन्न कालों में नारी की स्थिति में परिवर्तन होते रहे।
यहाँ हम आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी की क्या स्थिति रही है इसका मूल्यांकन करेंगे, किन्तु इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भो की प्रकृति को समझ लेना आवश्यक है। जैन आगम साहित्य एक काल की रचना नहीं है। वह ईसा पूर्व पाँचवी शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक अर्थात् एक हजार वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में निर्मित, परिष्कारित
और परिवर्तित होता रहा है अत: उसके समग्र सन्दर्भ एक ही काल के नहीं हैं। पुन: उनमें भी जो कथा भाग है, वह मूलत: अनुश्रुतिपरक और प्रागैतिहासिक काल से सम्बन्ध रखता है। अत: उनमें अपने काल से भी पूर्व के अनेक तथ्य उपस्थिति हैं, जो अनुश्रुती से प्राप्त हुए हैं। उनमें कुछ ऐसे भी तथ्य हैं, जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है और उन्हें मात्र पौराणिक कहा जा सकता हैं। जहाँ तक आगमिक व्याख्या साहित्य का सम्बन्ध है, वह मुख्यत: आगम ग्रन्थों पर प्राकृत एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाओं पर आधारित हैं अत: इसकी कालावधि ईसा की 5वीं शती से बारहवीं शती तक है। उसमें भी अपने युग के सन्दर्भ के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी मिल गये हैं। इसके अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं, जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न व्याख्याकारों के समकालीन समाज में खोजा जा
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