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महत्त्वपूर्ण और कोई वचन नहीं हो सकता। यद्यपि यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों में जैन आचार्यों ने भी दूसरी विचारधाराओं और मान्यताओं की समालोचना की है किन्तु उन सन्दर्भो में भी कुछ अपवादों को छोड़कर सामान्यतया हमें एक उदार दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। हम सूत्रकृतांग का ही उदाहरण लें, उसमें अनेक विरोधी विचारधाराओं की समीक्षा की गयी है किन्तु शालीनता यह है कि कहीं भी किसी धर्ममार्ग या धर्मप्रवर्तक पर वैयक्तिक छींटाकशी नहीं है। ग्रन्थकार केवल उन विचारधाराओं का उल्लेख करता है, उनके मानने वालों का नामोल्लेख नहीं करता है वह केवल इतना कहता है कि कुछ लोगों की यह मान्यता है या कुछ लोग यह मानते है, जो कि संगतिपूर्ण नहीं है। इस प्रकार वैयक्तिक या नामपूर्वक समालोचना से-जो कि विवाद या संघर्ष का कारण हो सकती है- वह सदैव दूर रहता है । जैनागम साहित्य में हम ऐसे अनेक सन्दर्भ भी पाते हैं, जहां अपने से विरोधी विचारों
और विश्वासों के लोगों के प्रति समादर दिखाया गया है। सर्वप्रथम आचारांग में जैन मुनि को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह अपनी भिक्षावृत्ति के लिए इस प्रकार जाये कि जिससे अन्य परम्पराओं के श्रमणों, परिव्राजकों और भिक्षुओं को भिक्षा प्राप्त करने में कोई बाधा न हो । यदि वह देखे कि अन्य परम्परा के श्रमण या भिक्षु किसी गृहस्थ उपासक के द्वार पर उपस्थित हैं तो वह या तो भिक्षा के लिए आगे प्रस्थान कर जाये या फिर सबके पीछे इस प्रकार खड़ा रहे कि भिक्षाप्राप्ति में कोई बाधा न हो। मात्र यही नहीं यदि गृहस्थ उपासक उसे और अन्य परम्पराओं के भिक्षुओं के सम्मिलित उपभोग के लिए जैन भिक्षु को यह कह कर भिक्षा दे कि आप सब मिलकर खा लेना तो ऐसी स्थिति में जैन भिक्षु का यह दायित्व है कि वह समानरूप से भिक्षा को सभी में वितरित करे। वह न तो भिक्षा में प्राप्त अच्छी सामग्री को अपने लिए रखे न भिक्षा का अधिक अंश ही ग्रहण करे। 29
भगवती सूत्र के अन्दर हम यह देखते हैं कि भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गणधर इन्द्रभूति गौतम को मिलने के लिए उनका पूर्वपरिचित मित्र स्कन्दक, जो कि अन्य परम्परा के परिव्राजक के रूप में दीक्षित हो गया था, आता है तो महावीर स्वयं गौतम को उसके सम्मान और स्वागत का आदेश देते हैं। गौतम आगे बढ़कर अपने मित्र का स्वागत करते हैं और कहते है- हे स्कन्दक ! तुम्हारा स्वागत है , सुस्वागत है। अन्य परम्परा के श्रमणों और परिव्राजकों के प्रति इस प्रकार का सम्मान एवं आदरभाव निश्चित ही धार्मिक सहिष्णुता और पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि करता ह।
धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 26
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