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अर्थात् मुक्ति न हो तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर रहने से; तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुत: कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है। एक दिगम्बर आचार्य ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि
संघो को विन तारइ, कट्ठो मूलो तहेव णिप्पिच्छो। अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा व झाएहि ॥
अर्थात् कोई भी संघ अर्थात् सम्प्रदाय हमें संसार-समुद्र ये पार नहीं करा सकता चाहे वह मूलसंघ हो, काष्ठासंघ हो या निश्पिच्छिकसंघ हो । वस्तुत: जो आत्मबोध को प्राप्त करता है वही मुक्ति को प्राप्त करता है। मुक्ति तो अपनी विषय-वासनाओं से, अपने अहंकार और अमर्ष से तथा राग-द्वेष के तत्त्वों से ऊपर उठने पर प्राप्त होती है। अत: हम कह सकते हैं कि जैनों के अनुसार मुक्ति पर न तो व्यक्ति विशेष का अधिकार है और न तो किसी धर्म विशेष का अधिकार है। मुक्त पुरूष चाहे वह किसी धर्म या सम्प्रदाय का रहा हो सभी के लिए वन्दनीय और पूज्य होता है। आचार्य हरिभद्र लोकतत्त्व निर्णय में कहते हैं
यस्य निखिलाश्च दोषा न, सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ॥"
अर्थात् जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी गुण विद्यमान हैं, वह फिर ब्रह्मा हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर जिन- हम उसे प्रणाम करते हैं । इसी बात को आचार्य हेमचन्द्र महादेवस्तोत्र में लिखते हैं -
भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥18
अर्थात् संसार-परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्त्व जिनके क्षीण हो चुके हैं उसे
धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म:17
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