________________
किसी सीमा तक उन्होंने सम्यक्-श्रुत और मिथ्या-श्रुत के नाम पर तत्कालीन शास्त्रों का विभाजन भी कर लिया था, किन्तु फिर भी उनकी दृष्टि संकुचित और अनुदार नहीं रही। उन्होंने ईमानदारीपूर्वक इस बात को स्वीकार कर लिया कि जो सम्यक्-श्रुत है, वह मिथ्या-श्रुत भी हो सकता है और जो मिथ्या-श्रुत है वह सम्यक्-श्रुत भी हो सकता हैं । श्रुति या शास्त्र का सम्यक् होना या मिथ्या होना शास्त्र के शब्दों पर नहीं, अपितु उनके अध्येता और व्याख्याता पर निर्भर करता है। जैन आचार्य स्पष्ट रूप से कहते हैं कि 'एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक्-श्रुत भी मिथ्या-श्रुत हो जाता है और एक सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत भी सम्यक् श्रुत हो जाता है । एक सम्यक्-दृष्टि व्यक्ति मिथ्या-श्रुत में से भी अच्छाई और सारतत्व ग्रहण कर लेता है, तो दूसरी ओर एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति सम्यक्-श्रुत में भी बुराई और कमियाँ देख सकता है। अत: शास्त्र के सम्यक् और मिथ्या होने का प्रश्न मूलत: व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर ह। ग्रन्थ और इनमें लिखे शब्द तो जड़ होते हैं, उनको व्याख्यायित करने वाला तो व्यक्ति का मनस् है । अत: श्रुत सम्यक् और मिथ्या नहीं होता है, सम्यक् या मिथ्या होता है उनसे अर्थ-बोध प्राप्त करने वाले व्यक्ति का मानसिक दृष्टिकोण। एक व्यक्ति सुन्दर में भी असुन्दर देखता है तो दूसरा व्यक्ति असुन्दर में भी सुन्दर देखता है। अत: यह विवाद निरर्थक और अनुपयोगी है कि हमारा शास्त्र ही सम्यक्-शास्त्र है और दूसरे का शास्त्र मिथ्या-शास्त्र है। हम शास्त्र को जीवन से नहीं जोड़ते है अपितु उसे अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित करके उस पर विचार-भेद के आधार पर विवाद करने का प्रयत्न करते हैं । परन्तु शास्त्र को जब भी व्याख्यायित किया जाता है, वह देश, काल और वैयक्तिक रूचि भेद से अप्रभावित हुए बिना नहीं रहता। एक ही गीता को शंकर और रामानुज दो अलग-अलग दृष्टि से व्याख्यायित कर सकते हैं। वही गीता तिलक, अरविंद और राधाकृष्णन् के लिए अलग-अलग अर्थ की बोधक हो सकती है। अत: शास्त्र के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में विवाद और असहिष्णुता को बढ़ावा देना उचित नहीं है। शास्त्र और शब्द जड़ है उससे जो अर्थबोध किया जाता हैं, वही महत्वपूर्ण है और यह अर्थबोध की प्रक्रिया श्रोता या पाठक की दृष्टि पर निर्भर करती है; अत: महत्त्व दृष्टि का है, शास्त्र के निरे शब्दों का नहीं है। यदि दृष्टि उदार और व्यापक हो, हममें नीर-क्षीर-विवेक हो और शास्त्र के वचनों को हम उस परिपेक्ष्य में समझने का प्रयास करें जिसमें वे कहे गये हैं, तो हमारे विवाद का क्षेत्र सीमित हो जायेगा। जैनाचार्यों ने नन्दीसूत्र में जो यह कहा कि सम्यक्-श्रुत मिथ्यादृष्टि
धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म:10 For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org