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________________ suniharyanruniv.. . विमोह ABIRHAmoe - - है, और हितकर, सुखकर, योग्य और सदा के लिये निःश्रेयसरूप है । [ २१५ ] यदि भितु को ऐसा जान पडे कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और न मैं किसी का हूँ तो वह अपनी आत्मा को अकेला ही समझे। ऐसा समझने वाला भिक्षु उपाधि से मुक्त हो जाता है और उसका तप बढ़ता है। भगवान द्वारा बताये हुए इस मार्ग को बराबर समझ कर वह समभाव से रहे । [ २१६] . यदि किसी भिक्षु को ऐसा जान पड़े कि मैं रोग से पीड़ित हूँ, अशक्त हूँ और भिक्षा के लिये एक घर से दूसरे घर नहीं जा सकता; उसकी ऐसी स्थिति समझ कर कोई दूसरा उसको आहार पानी लाकर दे तो उसको तुरन्त ही विचार कर कहना चाहिये कि, 'हे आयुष्मान तुम्हारा लाया हुआ यह अाहार-पानी मुझे स्वीकार करने योग्य नहीं है ।' [ २१६] किसी भिक्षु का ऐसा नियम हो कि, बीमार होने पर मैं दूसरे को अपनी सेवा करने के लिये नहीं कहूँ पर ऐसी स्थिति में यदि समान धर्मी जो अपने आप ही मेरी सेवा करना चाहें तो स्वीकार कर लूँ; और इसी प्रकार में अच्छा हो जाऊँ तब कोई समान धर्मी बीमार हो जाये तो उसके न कहने पर मैं उसकी सेवा करूँ तो वह भिक्षु अपने नियम को बराबर समझ कर उस पर दृढ़ रहे । [ २१७ ] इसी प्रकार किसी भिक्षु का ऐसा नियम हो कि मैं दूसरे की सेवा करूँगा, पर अपनी सेवा दूसरे से नहीं कराऊँगा; अथवा मैं दूसरों की सेवा नहीं करूँगा पर दूसरे मेरी सेवा करेंगे तो इनकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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