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________________ विमोह [ ४६ पडता । कुछ कहते " हैं, कोई लोक को ध्रुव उसको सादि चोरी आदि करने कराने में कुछ बुरा नहीं जान लोक है ' कुछ कहते, 'लोक नहीं है'। कहते हैं, कोई अध्रुव कहते हैं । कोई ( आदि वाला) कहते हैं तो कोई उसको अनादि कहते है । कोई उसको अन्तवाला कहते है तो कोई उसको अनन्त कहते हैं । इसी प्रकार वे सुकृत- दुष्कृत, पुण्य पाप, साधु- श्रसाधु सिद्धि - श्रसिद्धि और नरक - नरक के विषयों में अपनी अपनी मान्यता के अनुसार वादविवाद करते हैं। उनसे इनता ही कहना चाहिये कि तुम्हारा कहना हेतु है । शुज्ञ, सर्वदर्शी और सर्वज्ञ भगवान ने जिस प्रकार धर्म का उपदेश दिया है, उस प्रकार उनका ( वादियों का ) धर्म यथार्थ नहीं है । [ १६ ] वस्त्र, अथवा, ऐसे विवाद के प्रसंगों में मौन ही धारण करे; ऐसा मैं कहता हूँ । प्रत्येक धर्म में पाप को ( त्याग करने को ) स्वीकार किया है। इस पाप से निवृत्त होकर मैं विचरता हूं यही मेरी विशेपता है, " ऐसा समझ कर विवाद न करे । [ २०० 1 और, यह भी भली भांति जान ले कि खान-पान, पात्र, कंबल या रजोहरण मिले या न मिले तो भी मार्ग छोड कर कुमार्ग पर चलने वाले विधर्मी लोग कुछ दे, ( कुछ लेने के लिये) निमंत्रण दे या सेवा करे तो उसे स्वीकार न करे । [ १६८ ] मतिमान जिन ( मूल में 'माहरा' शब्द है, जिसका अर्थ सच्चा ब्राह्मण या मा+हण अर्थात् अहिंसा का उपदेश देने वाले जिन होता है ।) के बताए हुए धर्म को समझ कर, फिर भले ही गांव में रहे या अरण्य में रहे, अथवा गांव में न रहे या अरण्य में न रहे; परन्तु महापुरुषों के बताए हुए ग्रह, इन तीन व्रतों के स्वरूप को बराबर हिंसा सत्य और अपरिसमझ कर श्रार्य पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only · www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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