SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मनाश [ जैसे पक्षी अपने बच्चों को उन्छेरते हैं, वैसे ही वह भिक्षु धर्म में न लगे हुए मनुष्यों को रात-दिन शास्त्र का उपदेश दे कर धीरे धीरे तैयार करता है, ऐसा मैं कहता हूँ। [१९२, १८७ ] ( ३ ) कितने ही निर्बल मन के मनुष्य धर्म को स्वीकार करके भी उसको पाल नहीं सकते । असह्य कष्टों को सहन न कर सकने के कारण वे साधुता को छोड़ कर कामों की तरफ ममता से फिर पीछे चले जाते हैं। संसार में फिर गिरने वाले उन मनुष्यों के भोग विघ्नों से परिपूर्ण होने के कारण अधूरे ही रहते हैं। वे तत्काल या कुछ समय के बाद ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं और फिर बहुत काल तक संसार में भटकते रहते हैं । [ १८२ ] कितने ही कुशील मनुष्य ज्ञानियों के पास से विद्या प्राप्त कर के उपशम को त्याग कर उद्धत हो जाते हैं। कितने ही मनुष्य ब्रह्मचर्य से रहते हुए भी भगवान की आज्ञा के अनुसार नहीं चलते। और कितने ही इस श्राशा से कि श्रानन्द" से जीवन बीतेगा, ज्ञानियों के शिष्य बन जाते हैं, तो कितने ही संसार का त्याग करने के बाद ऊब जाने के कारण, कामों में श्रासक्ति रखते हैं । वे संयम का पालन करने के बदले गुरु का सामना करते हैं [ १ ] ऐसे मंद मनुष्य दूसरे शीलवान्, उपशांत और विवेकी भिक्षुओं को, ' तुम शीलवान् नहीं हो, ' ऐसा कहते हैं। यह मंद मनुष्यों की दूसरी मूर्खता है । [१८] कितने ही मनुष्य संयम से पतित होते हैं, पर वे दूसरों के सामने शुद्ध आचार की बातें बनाते हैं; और कितने ही श्राचार्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy