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प्राचारांग सूत्र
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में न हुआ हो, उसको जानने के बाद संयमी को उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये। वेदवित् (ज्ञानवान) मनुष्य इस प्रकार अप्रमाद से किये प्रायश्चित्त की प्रशंसा करते हैं। [१५८ ]
स्वहित में तत्पर, बहुदर्शी, ज्ञानी, उपशांत सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला और सदा प्रयत्नशील ऐसा मुमुक्षु स्त्रियों को देख कर चलायमान न हो। वह अपनी आत्मा को समझा कि लोक में जो स्त्रियां हैं, वे मेरा क्या भला करने वाली हैं? वे मात्र पाराम के लिये हैं, पुरुषार्थ के लिये नहीं। [१६]
मुनि ने कहा है कि कोई संयमी कामवासना से पीड़ित हो तो उसे रूखा-सूखा आहार करना और कम खाना चाहिये; सारे दिन ध्यान में खड़े रहना चाहिये, खूब पांव-पांव परिभ्रमण करना चाहिये
और अन्त में श्राहार का त्याग करना चाहिये पर स्त्रियों की तरफ मनोवृत्तिको नहीं जाने देना चाहिये। कारण यह कि भोग में पहिले दण्डित होना पड़ता है और पीछे दुःख भोगना पड़ता हैं या पहिले दुःख भोगना पड़ता है और पीछे दण्डित होना पड़ता है। इस प्रकार भोग मात्र क्लेश और मोह के कारण हैं। ऐसा समझ कर संयमी भोगों के प्रति न झुके, ऐसा मैं कहता हूं । [१५६]
भोगों का त्यागी पुरुष काम कथा न करे, स्त्रियों की और न देखे, उनके साथ एकान्त में न रहे, उन पर ममत्व न रखे, उनको श्राकर्षित करने के लिये अपनी सज-धज न करे; वाणि को संयम : में रखे, आत्मा को अंकुश में रखे और हमेशा पाप का त्याग करे । इस प्रकार की साधुता की उपासना करे, ऐसा में कहता हूँ। [१६]
असंयम की खाई में आत्मा को कदापि न गिरने दे। संसार में जहाँ जहाँ विलास है, वहां से इन्द्रियों को हटा कर संयमी
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