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________________ ""VMuvvvvvvvvvxnnnivya. N Aunnnnnnovanvar...Arunny हिंसा का विवेक मति न दे। हिंसा से निवृत्त हुआ विवेकी वसुमान् (गुणसंपत्तिवान्) प्रकरणीय पापकर्मों के पीछे न दौड़े । पापकर्म मात्र में छः में से किसी न किसी काय के जीवों की हिंसा या परिताप होता ही है। [३६, ६१] इतने पर भी कितने ही अपने को 'अनगार' कहलाते हुए भी अनेक प्रवृत्तियों से जीवों की हिंसा किया करते हैं । वे अपनी मान-पूजा के लिये, जन्म-मरण से बचने के लिये, दुःखों को दूर करने के लिये या विषयासक्ति के कारण हिंसा करते हैं। ऐसे मनुष्य अपने लिये बन्धन ही बनाते है वे प्राचार में स्थिर नहीं होते और हिंसा करते रहने पर भी अपने को 'संयमी' कहलाते हैं किन्तु वे स्वछन्दी, पदार्थों में आसक्ति रखने वाले और प्रवृत्तियों में लवलीन लोगों का संग ही बढ़ाते रहते हैं। [६०] ____ जो सरल हो, मुमुक्षु हो और अदम्भी हो वही सच्चा अनगार है। जिस श्रद्धा से मनुष्य गृहत्याग करता है, उसी श्रद्धा को, शंका और श्रासक्ति का त्याग करके सदा स्थिर रखना चाहिये। वीर पुरुष इसी महामार्ग पर चलते आये हैं । [१८-२०] TION Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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