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जो सरल है, सुमुसु है, और प्रदंभी है, वही सच्चा अनगार । जिस श्रद्वा से मनुष्य गृहत्याग करता है, इसी श्रद्धा को श्राशंका और आसक्ति को त्याग कर, सदा स्थिर रखना चाहिये । वीर पुरुष इसी मार्ग पर चलते श्राये हैं।. उहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंतदुःखी तसथावरा दुही। अलसएं सव्वस हे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए ||
आचारांग सूत्र
सुख दुःख में समभाव रखकर ज्ञानी पुरुषों की संगति में रहे, और अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखी बस स्थावर जीवों को अपनी किसी क्रिया से परिताप न दे। ऐसा करने वाला, पृथ्वी के समान सब कुछ सहन करने वाला महामुनि उत्तम श्रमण कहलाता है । ( श्र०१६ ) बिउ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ । समाहियस्मसिहा व तेयसा. तवो य पन्ना य जसो य वड्ढइ ||
उत्तम धर्म - पद का श्राचरण करने वाला, तृष्णारहित, ध्यान और समाधि से युक्त और श्रम की उबाला के समान तेजस्वी विद्वान् भिक्षु के तप, प्रज्ञा और यश वृद्धि को प्राप्त होते हैं । ( ० १६ ) तहा विमुकस्स परिन्नचारिणों, धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणी । विसुज्झई जांसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ।।
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इस प्रकार कामभोगों से मुक्त रह कर, विवेक पूर्वक आचरण करने वाले उस धृतिमान और सहनशील भिक्षु के पहिले किये हुए सब पापकर्म अग्नि से चांदी का मैल जैसे दूर हो जाता है, वैसे ही दूर हो जाते हैं । ( श्र०१६) इमि लोए परए य दोसुवि, न विज्जई बंधण जस्स किंचिवि । से हु निरालवणमप्पइट्ठिए, कलंकली भाव पहं विमुच्चई ॥ तिबेमि ।।
इस लोक और परलोक दोनों में जिसको कोई बन्धन नहीं है, और जो पदार्थों की श्राकांक्षा से रहित 'निरालम्ब' और अप्रतिबद्ध है, वही गर्भ में आने-जाने से मुक्त होता है; ऐसा मैं कहता हूं । (श्र० १६ )
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