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________________ १३४ ] इस महाव्रत की पांच भावनाएँ ये हैं पहिली भावना - निर्ग्रन्थ कान से मनोहर शब्द सुन कर उसमें आसक्ति राग या मोह न करें; इसी प्रकार कटु शब्द सुनकर द्वेष न करे क्योंकि ऐसा करने से उसके चित्र की शांति भंग होना और केवली के उपदेश दिये हुए धर्म से भ्रष्ट होना सम्भव है । नहीं जा सकते, उसे भिक्षु व्याग दे । मनोहर रूप कान में सुनाते शब्द रोके पर उनमें जो राग द्वष है, दूसरी भावना - निर्ग्रन्थ श्रांख से श्रासक्ति न करे; कुरूप को देख कर द्वेष न करे । Araria सूत्र श्रांख से दिखता रूप रोका नहीं जा सकता, परन्तु उनमें जो रागद्वेष है उसे भिक्षु त्याग दे । तीसरी भावना - निर्ग्रन्थ नाक से सुगन्ध सूंघ कर उसमें श्रासक्ति न करे; दुर्गन्ध सूंघ कर द्वेष न करे । देख कर उसमें नाक में गंध श्राती रोकी नहीं जा सकती, परन्तु उसमें जो रागद्वेष है, उसे भिक्षु त्याग दे । चौथी भावना - निर्ग्रन्थ जीभ से सुस्वादु वस्तु चखने पर उसमें श्रासक्ति न करे, बुरे स्वाद की वस्तु चखने पर द्वेष न करे । जीभ में स्वाद आता रोका नहीं जा सकता परन्तु उसमें जो रागद्वेष है, उसे भिक्षु त्याग दे । पांचवी भावना - निर्ग्रन्थ अच्छे स्पर्श होने पर उसमें श्रासक्ति न करे; बुरे स्पर्श होने पर द्वेष न करे | स्वचा से होने वाला स्पर्श रोका नहीं जा सकता, परन्तु उसमें जो रागद्वेष है उसे भिक्षु त्याग दे ! इतना करने पर ही कह सकते हैं कि उसने महाव्रत का बराबर पालन किया । Jain Education International इन पांच महावतों और इनकी पच्चीस भावनाओं से युक्त भिक्षु, शास्त्र, श्राचार और मार्ग के अनुसार उनको बराबर पाल कर ज्ञानियों की आज्ञा का श्राराधक सञ्चा भिक्षु बनता है । [ १७६ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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