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प्राचारांग सूत्र
समद्धि के साथ अपने विमानों में बैठकर कुंडग्राम के उत्तर में क्षत्रियविभाग के ईशान्य में प्रा पहुंचे।
हेमन्त ऋतु के पहिले महिने में, प्रथम पक्ष में, मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को सुव्रत नामक दिन को, विजय मुहूर्त में, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में, छाया पूर्व की और पुरुषाकार लम्बी होने पर भगवान् को शुद्ध जल से स्नान कराया गया और उत्तम सफेद बारीक दो वस्त्र और आभूषण पहिनाये गये । बादमें उनके लिये चन्द्रप्रभा नामक बड़ी सुशोभित पालकी लाई गई; उसमें भगवान् निर्मल शुभ मनोभाव से विराजे। उस समय उन्होंने एक ही वस्त्र धारण किया था। फिर उनको धूमधाम से गाते बजाते गांव के बाहर ज्ञातवंशी क्षत्रियों के उद्यान में ले गये। .
उद्यान में आकर, भगवान् ने पूर्वाभिमुख बैठ कर सब आभूषण उतार डाले और पांच मुट्टियों में, दाहिने हाथ से दाहिने ओर के और बांये हाथ से बायीं ओर के सब बाल उखाड़ अले। फिर सिद्ध को नमस्कार करके, 'आगे से मैं कोई पाप नहीं करूंगा,' यह नियम लेकर सामायिक चारित्र का स्वीकार किया। यह सब देव और मनुष्य चित्रवत् स्तब्ध होकर देखते रहे। __ भगवान् को क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र लेने के बाद मनःपर्यवज्ञान प्राप्त हुआ । इससे वे मनुष्यलोक के पंचेन्द्रिय और संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानने लगे। . प्रव्रज्या लेने के बाद, भगवान् महावीर मे मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धियों को · बिदा किया और खुद ने यह नियम लिया कि अब से बारह वर्ष तक मैं शरीर की रक्षा या ममता रखे बिना, जो कुछ परिषह और उपसर्ग श्रावेंगे, उन सबको
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