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________________ वंदित्ता वि तिएण उप्पाएणं नंदीसवर वरे दीवे समोसरणं करेति, नंदीसरवरे दीके समवसरणं करेत्ता तहिं चेहआई वंदति, विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एक तिए गति-विसए पन्नतं ।। (सूत्र 683 भगवती सूत्र मूल शतक 2 उद्देशा 9) अर्थ-श्रमण भगवान महावीर स्वामी से उनके प्रथम गणधर श्री इन्द्र, भूति गौतम पूछते हैं कि हे भगवन् । विद्याचारण (मुनि) की तिर्यग् गति का विषय कितना कहा है ? भगवान् फरमाते हैं कि-हे गौतम ! वे विद्याचारण उत्पात से मानुषोत्तर पर्वत पर समवसरण (स्थिरता) करते हैं और वहां जाकर वहां के 1 चैत्यों को बन्दन करके वहां से दूसरे उत्पात द्वारा नंदीश्वर द्वीप में समवसरण करते हैं और 2-वह रहे हुए चैत्यों को वन्दन करके वापिस वहां से लौट कर यहां आते हैं और 3-यहां के चैत्यों को वन्दन करते हैं । हे गौतम ! विद्याचारण (मुनियों) की तिर्यग् गति का' विषय इतना ही हैं। इस पाठ में तीन बार चेइआणि का प्रयोग चेइय (चत्य) केलिये वहु वचन में हुआ है। अर्थात् बहुत चैत्य हैं, एक नहीं। इस पर आचार्य अभयदेव सूरि कृत टीकातत्र चरणं गमनमतिशय वदाकाशे इति चारणः। विद्याश्रुतं तच्चपूर्वगतंतत्कृतोपकाराश्चारणा बिद्याचारणाः प्रथमेन मानुषोत्तर नगं, द्वितीयेन् नंदीश्वरं स एति ततस्तृत्तीयेने है ति कृत चैत्यवन्दनः । अर्थ--टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने इस उपर्युक्त पाठ में इआई वदति" जो यह पाठ तीन बार आया है उसका अर्थ किया है ---"चैत्यवन्दना करता है।" यानी विद्याचारण अथवा जंवाचारण मुनि मानुषोत्तर पर्वत प जाकर वहाँ चैत्यों को बन्दन करते है, वहां से नन्दीश्वर द्वीप में जाकर वहां के चैत्यों को वन्दन करते हैं: और वहाँ से लोट कर यहां के चैत्यों को धन्दन करते है । जैनधर्म की मान्यता है कि मनुष्य की उत्पत्ति और मृत्यु ढाई द्वीपों के अन्दर ही होती है। 1-जम्बूद्वीप, 1-घातकीखंड तथा 1/2 (आधा) पुष्करवरद्वीप एव इन द्वीपों के बीच के लवणोदधि तथा कालोदधि दो समुद्र और आधे 8-इसी प्रकार भगवती सूत्र में विद्याचारण मुनियों की ऊर्ध्व गति, जंघा-. चारण मुनियों की तिर्यग और ऊर्ध्वगति के वर्णन में भी चैत्यों को वन्दन करने का जिकर पाया है । यह सब वर्णन भगवती सूत्र के इसी प्रकरण में इसी स्थल पर क्रमशः दिया गया है । देखे भगवती सूत्र श० 2 उद्देश 9) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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