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करते हैं । ऐसे अर्थ करने में इनकी न तो कोई एक पद्धति है न एक शैली है। परन्तु यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखने की है कि मर्ति मानने वाले चैत्य शब्द का अर्थ सर्वत्र मूर्ति ही करते हैं । यह अर्थ उनका मनःकल्पित नहीं है । ऐसा अर्थ गीतार्थ जैन पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित है और बहुत प्राचीन काल का है।
(5) जैनागयं श्री अभयदेव सूरि ने द्वादशागों (बारह अगों) में से नौ अंगों (आगमों) पर टीकाएं लिखी हैं। प्रश्नव्याकरण के मल पाठ में जो चैत्य शब्द आया है वहां उन्होंने इसका अर्थ प्रतिमा ही किया है। तथा देवकुलिका और 'शिखरबद्ध देवप्रासाद' (मदिर) भी किया है। श्री अभयदेव मूरि विक्रम की 11वीं शताब्दी में हुए हैं। उन्हों ने तीसरे आगम ठाणांग (स्थानांग) सूत्र की टीका विक्रम संवत 1120 में समाप्त की थी। उन्हें हुए नौ सौ साल से अधिक हो गये हैं। अभी विक्रम की 21वीं शताब्दी है।
(6) यदि इस से भी पहले का प्रमाण देखा जावे तो श्री अभयदेव सूरि से पहले श्री शीलंकाचार्य हुए हैं। उनका समय विक्रम की नवीं शताब्दी है । उन्होंने प्रथमांग-आचारांग तथा द्वितीयांग-सूत्रकृतांग पर टीकाएं लिखी है उन्होंने भी जिन पडिमा का अर्थ जिनप्रतिमां ही किया है। आप वनराज चावड़ा के समय में हुए हैं । उन्हें हुए 12 सौ वर्ष व्यतीत हो गये हैं।
(7) इस से पूर्व जैनाचार्य श्री हरिभद्र सूरि विक्रम की छठी शताब्दी में हो गये हैं। उन्हें पंद्रह सौ वर्ष हो गये हैं। उन्होंने आवश्यक सूत्र की चूणि पर टीका लिखी है । उस में भी चैत्य शब्द का अर्थ जिनप्रतिमा ही किया है। चूणिकार इनसे भी बहुत पहले हो चुके हैं।
(8) यदि चैत्य या जिनप्रतिमा का अर्थ साधु, ज्ञान अथवा बगीचा किया जावे तो जिनागम के सूत्र पाठों में जहाँ चैत्य शब्द का प्रयोग किया गया है वहाँ यह अर्थ ठीक नहीं बैठता।
(9) चैत्य शब्द का वास्तविक अर्थ पंचमांग श्री भगवती सूत्र में कहा हैचारण ऋद्धिवाले साधु-मुनि नंदीश्वरद्वीप में जाते हैं और वहां जाकर चैत्यों को वन्दन करते है। यह मूलपाठ इस प्रकार है
गौतम स्वामी प्रभु वीर से प्रश्न करते है जिस का समाधान प्रभु करते हैं । प्रश्न--विज्जाचारणस्स णं मंते तिरियं गति विसए पन्नत्त ?
उत्तर - गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेति, माणसुत्तरे पत्रए समोसरणं करेत्ता तहि च इआईवंदति, तहिं चेइमाई
7. भवणधर सरण लेण आवण 'चित्तिय देवकुलिका' चित्तसभा वा आयातण वेसह भूमिधर मंडवाणए कए (समिति पृष्ठ 93) चैत्यानि प्रतिमा: देवकुलिका स शिखर देवप्रसादाः (इति अभयदेव सूरि पादः)
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