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________________ 39 प्रतिमाएं प्राप्त न होती तो कौन ऐसा व्यक्ति होता जो केवल हमारे कथन मात्र से ही जैनधर्म की प्राचीनता को स्वीकार कर लेता। अत: मेरे ख्याल से तो यह बात निविचाद है कि जैन परम्परा से मूर्ति, मंदिर, स्तूप आदि के अस्तित्व को छोड़ कर उस की प्राचीनता का दावा करना बालचेष्टा के सिवाय और कुछ भी महत्व नहीं रहता। ये मूर्ति मंदिर आदि मात्र ऐतिहासिक प्राचीनता के साधन ही नहीं हैं परन्तु हमारी सभ्यता के भी महत्वपूर्ण प्रतीक हैं । कला का उच्च आदर्श और शांत स्वच्छ वातावरण का अनुपम आदर्श का उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। हमारे पूर्वज कितने त्यागी, भवभीरू, प्रभु-भक्त, गुरुजनों के प्रति श्रद्धालु, शास्त्रज्ञ, षट्दर्शनवेत्ता थे ये, जिन प्रतिमाएं, मंदिर, तीर्थ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित करते हैं। अतीत के अज्ञानी तथ्यों के थपेड़े, विर्मियों के प्रलयंकारी कठोर आघात तथा समयसमय पर आनेवाले प्राकृतिक प्रकोपों को बरदाश्त करते हुए भी वे आज तक अपनी शानशौकत को अक्षुन्न रूप से कायम रखते हुए विद्यमान है। मात्र इतना ही नहीं अपितु इससे भी बढ़कर घर के (जैन परम्परा में जिनप्रतिमा के) विद्रोहियों ने भी इन प्रतिमाओं, मदिरों, तीर्थों को नुकसान पहुंचाने में कोई कमी नहीं रखी। जिस से जैन सभ्यता, इतिहास, कला, धर्म श्रद्धा-भक्ति उपासना के साधनों, इन की महत्ता और प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा । फिन्तु इन प्रतिमाओं, मन्दिरों, तीर्थों, गुफाओं, स्तूपों स्मारकों ने तो भारती कला के विकास में अनन्य चारचाँद लगा दिये हैं। अतः ऐसे आघातों, प्रत्याघातों, प्रकोपों, हथकंडों, विरोधी प्रचारों, प्राकृतिक प्रकोपों को सहन करते हुए आज भी जैन समाज तथा भारत के गौरव को बढ़ाने वाले हमारे बीच ये मन्दिर तीर्थ आदि विद्यमान हैं । और सूर्य के समान चमक रहे हैं। धार्मिक भावनाओं के प्ररक, रक्षक और प्रवर्धक यदि विचार किया जावे तो पता चल ही जावेगा कि ये मंदिर आदि ऐतिहा. सिक, कला तथा सभ्यता के प्रतीक तो हैं ही। परन्तु हमारे हृदय में परमात्मा, धर्मगुरुओं तथा धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा पैदा करने वाले, वीतराग सर्वज्ञ कथित धर्म का साक्षात्कार तथा श्रद्धा कराने वाले एवं मोक्षमार्ग के आचरण कलिये प्रेरणादायक हैं । दूर दुर्गम स्थानों में जहां साधु-साध्वियों का पहुंचना और आवागमन दुष्कर भी है, जहाँ धर्म के अन्य साधन भी उपलब्ध नहीं हैं वहां केवल इन मदिरों आदि की कृपा से ही जैनधर्म का अस्तित्व टिक रहा है। कहां काश्मीर, कहां कन्याकुमारी, कहां आसाम और कहां पंजाब, सीमाप्रांत, सिंध, कहां गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, कच्छ राजस्थान मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, नेपाल, भुटान, बंगाल, उड़ीसा आदि क्षेत्रीय भाग; कहां पर्वतों की दुर्गम घाटियां, कहां खाईयां, पार्वतीय कन्दराएं, गुफाएं, कहां यातायात की असुविधाएं और कहां वन, जंगल, अटवियां, ऐसे-ऐसे स्थानों में आज भी इन्ही की 6-विशेष जानकारी के लिये देखें-मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म की इतिहास पुस्तक (हमारी कृति) -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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