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________________ 38 साधन है। यही कारण है कि तीथंकरों के जीवितकाल से ही जिनप्रतिमाओं की स्थापनाएं चालू हैं। इसका प्रमाण प्रभु श्री महावीर के जीवितकाल में ही सिन्धुसौवीर के राजा उदायी की पट्टरानी भुभावती अपने राजमहल में प्रभु महावीर की प्रतिमा स्थापित कर उसकी वन्दना, भक्ति, उपासना, पूजादि नित्यप्रति किया करती थी। इसका उल्लेख जैनागमों में स्पष्ट पाया जाता है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल से हो जैन धर्मानुयायी जिनमन्दिरों में जाकर जिन प्रतिमाओं की बन्दना, पूजा, भक्ति, उपासना करके अपने आत्म-कल्याण की साधना करते आ रहे हैं। प्रतिबिम्ब, प्रतिमा, मूर्ति, बिम्ब, चित्र, फोटो आदि का अर्थ प्रतिकृति ही है। फिर वह चाहे पाषाण, धातु, मिट्टी, बालु, काष्ठ, हाथीदांत, सोना, चाँदी, मणि, माणिक्य, जवाहरात, पत्र, कागज, वस्त्र आदि किसी भी पदार्थ से निर्मित हो । __ मानव शरीरधारी है, प्राथमिक अभ्यासी के लिए उसके अपने ध्येय की प्राप्ति केलिए शरीरधारी का ही आदर्श चाहिए । मानव-शरीर के द्वारा ही उन आदर्श महापुरुषों ने आत्मस्वरूप को प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया हैं। मूर्ति भी शरीरवाले रूपवाले की ही बन सकती है अरूपी की नहीं बन सकती। तीर्थंकर प्रभु शरीर. धारी हैं, रूपी हैं और मानव शरीर से ही उन्होंने मुक्ति प्राप्त की है अतः मुमुक्षु के लिए उनके रूप के अनुरूप ही प्रतिमा होती है और उसी की उपासना से आत्मकल्याण संभव है। मूर्ति-सभ्यता कला तथा इतिहास का अंग किसी भी परम्परा का काल निर्णय करने के लिये उस के द्वारा निर्मित स्मारक मंदिर, मूर्तियां. तीर्थ ही प्रामाणिक साधन हैं। यदि जैन परम्परा में से जिन प्रतिमा तथा जिनमंदिर की मान्यता को निकाल दिया जाय तो उसकी ऐतिहासिक प्राचीनता की डौंडी पीटना सभ्य समाज में वैसा ही उपहासजनक होगा जैसा कि जंगल में कई दिनों से पड़े हुए प्राणी के चेतनाशून्य निर्जीव कलेवर को उठाकर उस से बात-चीत करने का उद्योग करना । तात्पर्य कि जैसे निर्जीव कलेवर बातचीत करने में सर्वथा असमर्थ होता है उसी प्रकार जैन परम्परा में मूर्ति, मंदिर, स्मारक, स्तूप, गुफाओं आदि इतिहास के प्रमाणभूत साधनों को निकाल देने से उस की प्राचीनता रूप चेतना भी साथ में ही लुप्त हो जाती है। यदि आज भूगर्भ से निकली हुई अथवा यत्रतत्र-सर्वत्र विखरी हुई प्राचीन पुरातत्त्व सामग्री (मोहन जो दड़ो आदि सिंधुघाटी से पांच हजार वर्ष पुराने जैन प्रतीक तथा मथुरा आदि अनेक स्थानों से प्राप्त दो-डाई हजार वर्ष प्राचीन स्तूप, मदिर, मूर्तियाँ) एवं इन से भी प्राचीन अर्वाचीन विशालकाय जिनमंदिरों में विराजमान जिनप्रतिमाएँ, तीर्थस्थल विद्यमान न होते । यदि आगम में वणित मथुरा का देवनिर्मित जैनस्तूप कंकाली टीले को खोदने से उसके गर्भ में से न निकाल पाते अथवा पंजाब में जेहलम नदी तटवर्ती मूर्तिगांव से अनेक मंदिरों के अवशेष एवं कांगड़ा आदि अनेक स्थानों से पुरातत्त्वज्ञों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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