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________________ 30 स्वयं संसारी अवस्था से परमात्म-पद पाया हो जोकि उपयुक्त ईश्वर के चरित्र में नहीं है। (4) चोथा वर्ग-बौद्ध दर्शन है जो परिनिर्वाण के बाद अपने इष्टदेव की आत्मा का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता। परिनिर्वाण के बाद आत्मा का अस्तित्व सर्वथा मिट जाने से न तो आत्मा को मोक्ष है और न ही ईश्वरत्व-. सिद्धावस्था की प्राप्ति है तथा न ही आत्मा शाश्वत सुख का अनुभव कर सकता है। अत: ऐसी उपासना से भी जीवात्मा अपने अन्तिम लक्ष्य को नहीं पा सकता। (5) संसारी आत्मा के सामने तो ऐसे ही संसारी आत्मा का आदर्श चाहिए जिसने अपने आचरण द्वारा-साधना द्वारा संसार का मूल कारण जो कर्मों का बन्धन है उससे मुक्ति पाई हो और संपूर्ण रूप से कर्मों से अलिप्त होकर जन्म-जरामृत्यु के चक्र से छुटकारा पाया हो तथा निर्मल निरंजन शुद्ध चैतन्यमय अरूपीस्वरूप को पाकर शाश्वत सुख रूप सिद्धावस्था प्राप्त की हो। ऐसा चारित्र वीतराग सर्वज्ञ-अर्हतों के सिवाय अन्य किसी भी ईश्वर में संभव नहीं है। यही एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने निम्नतम निगोद अवस्था से उत्क्रांति करते हुए मानव जन्म पाकर आत्मा के सर्व-कर्मबन्धनों को तोड़कर वीतराग पद को प्राप्त कर अनन्तज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-चारित्र को परिपूर्ण प्राप्त करके चरम सीमा रूप मोक्ष प्राप्त किया हो। प्रत्येक भव्यात्मा का लक्ष्य इसी अवस्था को पाना है । इसलिये अर्हतों-जिनेन्द्रदेवों द्वारा आचरित आदर्श मार्ग का अनुकरण करके ही वह अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो सकता है। ऐसे आदर्शमार्ग को अपनाने से ही विश्व के प्राणी-मात्र का कल्याण संभव है । कहने का आशय यह है कि ऐसा अवसर तभी प्राप्त हो सकता है कि जब हम अन्य सबका भरोसा छोड़कर एक मात्र ऐसे तीर्थ कर भगवन्तों की उपासना, आराधना, भक्ति और उनके द्वारा उपदिष्ट आत्म कल्याणकारी मार्ग को अपनायेंगे और ऐसे मार्ग को जानने के लिए एक मात्र साधन उनके द्वारा उपदिष्ट और उनके मुख्य शिष्यों गणाघरों द्वारा संकलित आचारांग आदि. आगम साहित्य ही है। ___ 1. इससे स्पष्ट है जैन धर्मावलम्बियों ने शरीरधारी तीर्थ करों तथा अशरीरी सिद्धों को (दोनों को) ईश्वर परमात्मा माना है और इन्हीं को अपना आराध्यदेव माना है । इस प्रकार ईश्वर पहले रूपी और बाद में अरूपी बनता है। 1-उपर्युक्तछह वर्गों में से एक अनीश्वरवादी है और वह आत्मा के अस्तित्व को भी नहीं मानता। अन्य पाँच वर्ग ईश्वरवादी हैं। 2-बौद्ध मात्र रूपी ईश्वर को मानते है अशरीरी को नहीं। 3-4-वैदिक आदि संप्रदाय मात्र अरूपी ईश्वर को मानते हैं रूपी को नहीं। 5-6 दो वर्ग ऐसे हैं जो ईश्वर को रूपी-अरूपी दोनों प्रकार का मानते हैं वे हैं वैष्णव (सनातनी) और जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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