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________________ 16 मूल्यों का साधन है । जैन धर्म की भाषा में कहें तो साधक के द्वारा वस्तुओं का त्याग और ग्रहण, दोनों ही साधना के लिए हैं । जैन धर्म की सम्पूर्ण साधना का म ल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है जो कि वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके। उस के सामने म ल प्रश्न देहिक एवं भौतिक म ल्यों की स्वीकृति का नहीं है अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शांति की स्थापना है । अतः जहां तक और जिस रूप से देहिक और भौतिक उपलब्धियाँ उस में साधक हो सकती हैं, वहां तक वे स्वीकार्य हैं और जहां तक उस में बाधक है वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान महावीर ने प्राचारांग एवं उत्तराध्ययन सूत्र में इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उस के कारण सुखद या दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उस के प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष करना है । क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय का आसक्त चित्त के लिए ही राग-द्वेष (मान-. सिक विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्त या वीतराग के लिए नहीं 134 अतः जैन धर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं। जैन अध्यात्मवाट की विशेषताएं (अ) ईश्वरवाद से मुक्ति-जैन अध्यात्मवाद ने मनुष्य को ईश्वरीय दासता से मुक्त कर मानवीय स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा की है। उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न कोई अन्य शक्ति ही मानव की निर्धारक है। मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है । जैन धर्म ने किसी विश्वनियन्ता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान पर मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया कि व्यक्ति ही अपनी साधना के द्वारा परमात्म-दशा को प्राप्त कर सकता है। उसने कहा 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है । मनुष्य को किसी का कृपाकांक्षी न बनकर स्वयं ही पुरुषार्थ करके परमात्म-पद को प्राप्त करना है।। (ब) मानव मात्र की समानता का उद्घोष-जैन धर्म की दूसरी विशेषता यह है कि उसने वर्णवाद, जातिवाद आदि उन समी अवधारणाओं की जो मनुष्यमनुष्य में ऊंच नीच का भेद उत्पन्न करती है, उसे अस्वीकार किया। उसके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं । मनुष्यों में श्रेष्ठता और कनिष्ठता का आधार न तो जाति विशेष या कुल विशेष में जन्म लेना है और न सत्ता और संपत्ति ही। वह वर्ण, रंग, जाति सम्पत्ति और सत्ता के स्थान पर आचरण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है। 33-आचारांग सूत्र 2/15 1 34-उत्तराध्ययन सूत्र 32/101 । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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