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________________ 15 का अधिकारी है ? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में प्रवृत्ति का आधार बन सकती है । प्रश्नव्याकरण सत्र में कहा गया है कि भगवान का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। 30 जैन साधना में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-वे जो पांच व्रत माने गये हैं वे वैयक्तिक साधना के लिए ही नहीं है सामाजिक मगल के लिए भी हैं । वे आत्मशुद्धि के साथ ही हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास भी है। जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही महत्व दिया है। जैन धर्म में तीर्थंकर, गणधर, और सामान्य-केवली के जो आदर्श स्थापित किये गये हैं और उन में जो तारतम्यता निश्चय की गयी है उस का आधार विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण व्यक्ति-कल्याण की भावना ही है। इस त्रिपुटी मे विश्व-कल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थकर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है । स्थानांग सूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की उपस्थिति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन साधना केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक ही सीमित नहीं है वरन् उसमें लोकहित या लोक-कल्याण की प्रव ति भी पायी जाती है ।1 क्या जैन धर्म जीवन का निषेध सिखाता है ? जैन धर्म में जो तप त्याग की महिमा गायी गई है उस के आधार पर यह भ्रांति फैलाई जाती है कि जैन धर्म जीवन का निषेध सिखाता है। अत: यहां इस भ्रांति का निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैन धर्म के तप त्याग का अर्थ शारीरिक एवं भौतिक जीवन की अस्वीकृति नहीं है। आध्यामिक मल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक म ल्यों की पूर्ण तया उपेक्षा की जाय । जैनधर्म के अनुसार शारीरिक मल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं । निशीथभाष्य में कहा है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है । १३ शरीर शाश्वत आनन्द के कुलपर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका म ल्य भी है, महत्व भी है और उसकी सार-संभार भी करना है। किन्तु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं कूल (किनारे) पर होना है नोका साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैन धर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विद्या का हार्द है । यह वह विभाज? रेखा है जो अध्यात्म और भोतिकवाद में अन्तर करती है । भौतिकताद में उपलब्धियाँ या जैविक म ल्य स्वयमेव साध्य है, अन्तिम है, जब कि अध्यात्म में व किन्हीं उचच ___30-प्रश्नव्याकरण सूत्र 2/1/2/1 31-स्थानांग सूत्र 101 32-निशीथ भाष्य 47/91 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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