SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 240 किसानों की भावनाएँ भी बोते समय और बेचते समय प्रायः जुदा जुदा हुआ करती हैं। उन भावनाओं के अनुसार ही उनके हृदय में शांति और अशांति, सुख या दुःख, मोह लोभादि की वृत्ति पुष्ट हुआ करती है। इष्ट वस्तु या प्रियजन के वियोग में प्रायः मोह, शोक, अज्ञान, दुःख आदि की वृत्तियां मुख्यतया हुआ करती हैं । अनिष्ट वस्तु, अप्रिय या शत्रु मनुष्य अथवा रोगादि के समय हिंसा, तिस्कार, अभाव, दुःख की वृत्तियाँ होती हैं। इतनी बातें तो केवल ऐसी वृत्तियों केलिये कही है कि जिनका प्रत्यक्ष से अनुभव होता है, परन्तु एक वृत्ति के साथ अन्य भी अनेक वृत्तियां प्रसंगानुसार हो जाती हैं । इस सारे विवेचन का सार यह है कि जैसा बीज होगा वैसा ही फल भी उत्पन्न होगा। इस दृष्टांत के अनुसार हमारी वृत्तियां जैसी होंगी वैसे ही हमें फल भोगने पड़ेंगे। इसलिये प्रत्येक व्यहार या परमार्थ के समय मनुष्यों को अपनी बुत्तियों की जांच करते रहना चाहिये । वृत्ति के मूल कारण तथा इसके भावी फल या संस्कारों के पड़ने की ओर भी लक्ष्य रखना चाहिये । तथा एक वृत्ति में से अनेक प्रवृत्तियाँ किस प्रकार विस्तार पाती हैं इन्हें भी ध्यान में रखना चाहिये। इस प्रकार निरीक्षण करते रहने से मन की कोन सी वृत्तियों को उत्पन्न होने देना चाहिये और कौन सी नहीं, इस बात को समझने केलिये और समझकर वृत्तियों को स्व-इच्छानुसार बदलने की कुंजी हमारे हाथों में आ जायेगी। साथ ही इनके भावी जीवन जैसा बनाना चाहेंगे वैसा बनाने का बल भी हमें प्राप्त हो जाएगा। अपनी वृत्तियों की तरह दूसरे की वृत्तियों का भी निरीक्षण करते रहना चाहिये और निरीक्षण करते हुए अपने मन में ऐसा करते रहना चाहिये कि यदि मैं ऐसी परिस्थिति मैं होऊं तो उस समय मुझे किस प्रकार की वृत्ति रखनी चाहिये अथवा कैसा व्यवहार करना होगा। ऐसा करने से भविष्य में ऐसे प्रसंग उपस्थित होने पर विशेष जागृति रखने का तथा नवीन बीज वाली वृत्तियों को रोक सकने का बल प्राप्त हो सकेगा। योग के मार्ग में आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले हरेक मनुष्य को व्यवहार के प्रत्येक अवसर पर अपनी वृत्तियों का निरीक्षण करते रहना चाहिये । वृत्तियों का निरी-- क्षण करते रहने की दिशा सूचन करने के लिये ही यह संक्षिप्त विवरण दिया है। यह विवेचन शांति के मार्ग का बीज है । जो बीज बोता है वह फल प्राप्त करता है। धर्म का वास्तविक स्वरूप इस प्रकार वृत्तियों का निरीक्षण कर उन वृत्तियों को उच्च बनाने में ही है अर्थात् तमोगुण में से रजोगुण और रजोगुण में से सत्वगणों में आने का अभ्यास करना चाहिये। जब तक ऐसा अभ्यास नहीं किया जाता तब तक हृदय निर्मल नहीं होता तथा अनेक जन्म तक धर्म करते हुए भी उसका उत्तम फल प्राप्त नहीं होता। 0. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy