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जाएगा। ध्यान केलिये दष्टि की स्थिरता बहुत उपयोगी है । उसको स्थिर बनाने के लिये पहले परमात्मा की सुन्दर मूर्ति की ओर खुली आँखों से बहुत समय तक एक टक देखने का अभ्यास करना चाहिये । आँखें नहीं झपकाना चाहिये । यदि आँखों में पानी आजाए. तो उसे आने देना चाहिए, परन्तु आँखें बन्द न करनी चाहिये । आरम्भ में आँखों में पानी आ जावे तब देखना बन्द कर देना चाहिये। फिर दूसरे दिन देखना चाहिये। दिन में दो बार प्रात: और संध्या को अभ्यास करना ठीक होगा। जब पन्द्रह मिनट तक देखने का अभ्यास हो जाये तब भगवान की मूर्ति के सामने से दृष्टि एकदम हटाकर आँखें बन्द करके अपने अन्तरंग में देखना चाहिये बाद में एकान्त पवित्र तथा डाँस मच्छर रहित स्थान में बैठकर अन्य सब विचारों को दूर कर प्रतिमा जी को हृदय में स्थापन कर उनकी अष्टप्रकारी मानसिक पूजा करनी चाहिए।
मानसिक पूजा (मन के द्वारा जल, चन्दन, पुष्पादि की प्रत्येक वस्तु की कल्पना करते हुए पूजा) करके पहले प्रभु के दाहिने पैर के अंगूठे को देखने की कल्पना करनी चाहिये, बार-बार इस कल्पना को खड़ी करना चाहिये । जब यह अंगूठा दिखाई दे, उस पर धारणा पक्की हो जाय कि कल्पना करते ही वह अंगूठा झट से प्रत्यक्ष की तरह मालूम होने लगे तब दूसरी अंगुलियाँ देखनी। पश्चात् इसी प्रकार दूसरा पग देखना । इसी तरह पालथी, कमर, हृदय और मुखादि कमशः देखना । तत्पश्चात् संपूर्ण शरीर पर धारणा करनी चाहिये । जब तक एक भाग बराबर दिखलाई न देने लग जाय तब तक दूसरे भाग पर नज़र नहीं डालनी चाहिये । दूसरा भाग दिखलाई देने लगे तब पहला
और दूसरा दोनों भाग एक साथ देखने लगना । इस प्रकार आगे के भागों के साथ भी पहले के भागों के साथ मिलाकर देखते जाना चाहिए । सम्पूर्ण शरीर जब भलीभांति दिखलाई देने लगे तब इस मूर्ति को सजीव प्रभु के रूप में बदल देना चाहिये अर्थात् ऐसी कल्पना करके ध्यान करना चाहिये कि प्रभु का शरीर हलनचलन कर रहा है, बोल रहा है इत्यादि । फिर इच्छानुसार प्रभु को बैठे, खड़े अथवा सोने की कल्पना कर उस की धारणा को दृढ़ करना । इस एकग्रता के साथ प्रभु के नाम का मन्त्र 'ओम् अहं नम:' का जाप करते रहना चाहिये । उनके हृदय में दृष्टि स्थापित कर वहीं जाप करते रहना चाहिये । यदि गिनती न रहे तो कोई हानि नहीं है । भृकुटी और तालु पर भी जाप करना चाहिये । जितना समय मिले भगवान् के जीवित शरीर को सन्मुख हृदय में खड़ा करके जाप करते ही रहना चाहिये । यदि हो सके तो घण्टों के घण्टों तक ध्यान में व्यतीत करते रहना चाहिये । ऐसा करने से मन एकाग्र होने के साथ साथ पवित्र होता है। कर्ममल जल जाता है। मन जितना जितना निर्मल होता जाएगा उतना ही स्थिर होता जायेगा। मन को स्थिर करने की धारणा हृदय और मस्तक पर करनी चाहिये । जैसे जैसे अभ्यास बढ़ता जायेगा वैसे ही वैसे आगे का मार्ग हाथ में आता जायेगा। इस प्रकार प्रारम्भ में ध्यान का अभ्यास करने से आगे बढ़ सकेंगे, अर्थात् महान ध्मानी बना जा सकेगा।
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