SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 224 अर्थ-जिस जिनेन्द्र भगवान ने मोह रूपी अन्धाकर को नष्ट कर दिया है, जो प्रभु परम शांतिकारक स्वभाव के धारक हैं; उन वीतराग प्रभु की मैं विनय भावना सहित तथा सम्यग्दर्शन-श्रद्धा युक्त भाव से कुंकभ (केसर) तथा चन्दनादि से स्वभाविक आत्मोत्कर्ष की प्राप्ति के निमित्त चन्दन पूजा करता हूँ। भावना-चन्दन केसर आदि से प्रभु की पूजा करते समय हृदय में यह भावना लानी चाहिए कि हे मगवन् ! आपकी चन्दन से पूजा करने से-चन्दन जैसे काटने घिसने और जलने पर भी अपनी सुगन्ध और शीतलता को नहीं छोड़ता वैसे ही दुनियां के विविध प्रसंगों में मेरी आत्म-जागृति बनी रहे । मैं क्रोधादि कषायों के ताप से जल रहा हूं उन पर विजय पाने के लिए मैं सब कुछ सहन कर सकूँ ऐसा उपशम (शांत) भाव मेरी आत्मा में आ जावे जिससे मेरे समभाव रूपी सुगंध से सब विश्व सुगंधित हो जावे। 3. पुष्प पूजा श्लोक-विकच-निर्मल-शुद्ध-मनोरमैः । विशद-चेतन-भाव-समुद्भवः। सुपरिणाम-प्रसून-घनैर्नवैः । परम-तत्व-मयं हि यजाम्यहम् ॥3॥ अर्थ-जो फूल सुविकसित (खिले हुए), पवित्र, शुद्ध और अति सुन्दर सुगंधित हैं; जो शुद्ध आत्मिक भावों की उत्पत्ति के सावनभूत हैं; जो सुन्दर मनोभावनाओं के प्रतीक है ऐसे ताजे, सुन्दर सुगंधित पुष्पों के समूह से मैं समस्त परम तत्त्वों के धारक श्री जिनेन्द्र भगवान की उत्कृष्ट भावों से पूजा रचाता हूँ। भावना-ताजे, खिले हुए, अखण्डित और सुगंधित फूलों से प्रभु की जो पूजा करते समय अपने मन में ऐसे विचार आने चाहिए-हे भगवन् ! फूल जैसे सुगंधित, कोमल और विकसित हैं । ऐसे फूलों से आपकी पूजा करने से काम विकारों तथा क्रोधादि कषायों की दुर्गन्ध का नाश होकर मेरा हृदय कोमल और निर्मल बन जावे जिससे शुद्धाचरण के पालन से परमात्म स्वरूप में रहने का बल प्राप्त हो। हे प्रभो ! जिस प्रकार फूल आपकी शरण पाकर निर्भय, सब प्रकार के कष्ट और किलामना से रहित होकर अभयदान पा जाते हैं और संतापों से रहित होकर अपनी सुगन्धी से चारों दिशाओं को सुगन्ध से भर देते हैं। वैसे ही मैं भी आपकी शरण पाकर सब क्लेशों, संतापों से रहित होकर परमशांति रूप वीतराग भाव को प्राप्त कर केवल ज्ञान द्वारा भव्य प्राणी मात्र को तत्त्वों के सत्य स्वरूप के ज्ञान से सुवासित कर दूं और अन्त में मोक्ष प्राप्त कर शाश्वत निर्भयता प्राप्त कर सकू । 4. धूप पूजा श्लोक-सकल-कर्म मेहन्धन-दाहनं । विमल संवर-भाव सुधूपनम् ॥ अशुम पुद्गल संग विसर्जन । जिनपते पुरतोस्तु सुहर्षतः ॥4॥ अर्थ-जो धूप समस्त कर्मरूपो ईन्धन को जलाने वाली है। निर्मन संवर भावना की सुगन्ध को प्रसारित करने वाली है, अशुद्ध पुद्गल परमाणुओं को दूर करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy