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________________ 222 जिससे प्रमु जी ओर पीठ न होने पावे। मन्दिर जी में आते जाते मार्ग को देखकर चलना चाहिए । ऐसा न हो कि कहीं ठोकर लग जाय, अथवा कोई जीव-जन्तु पांव के नीचे आ जाने से उसकी विराधना हो जावे। किस दिशा कौं तरफ मुख करके प्रभु की पूजा करनी चाहिए ? "पूर्वस्याँ लभते लक्ष्मी-अग्नौ संताप संभवः । दक्षिणास्याँ भवेन्मृत्यु-नैरुत्यै स्यादुपद्रवः ॥ पश्चिमायां पुत्रदुःख, वायव्यां सयाद् असंततिः । उत्तरस्यां महालाभं, ईशान्यां धर्मवासना ॥1॥" अर्थात्-(1) पूर्व दिशा की (तरफ मुख करके लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। “(2) अग्नि कोण में संताप । (3) दक्षिण दिशा में मृत्यु, (4) नरुत्य कोण में उपद्रव, *(5) पश्चिम दिशा में पुत्र का दुःख, (6) वायव्य कोण में पुत्र की अप्राप्ति, (7) उत्तर 'दिशा में महालाभ की प्राप्ति और (8) ईशान कोण में मुख करके पूजा करके से "धर्मवासना की प्राप्ति होती है। ___ सारांश यह है कि श्री जिनेश्वर प्रभु की पूजा सेवा आदि करते समय-पूर्व दिशा में, उत्तर दिशा में, ईशान कोण में मुख करके करने से लक्ष्मी, महालाभ तथा धर्म वासना की प्राप्ति होती है। श्री जिनपूजा पापों का नाश करने बाली है "जिनस्य पूजनं हन्ति, प्रातः पाप निशा भवम् । आजन्म विहित मध्ये, सप्त जन्मकृतं निशि ॥1॥" अर्थात्-जिनेश्वर प्रभु का पूजन प्रातः काल में किया हुआ रात के पाप को नाश करता है। दोपहर का पूजन इस भव के किये हुए पापों का नाश करता है और संध्या समय का किया हुआ पूजन सात जन्मों के पापों का नाश करता है। चैत्यवन्दन से शुभ भावोत्पत्ति "चैत्यवन्दनतः सभ्यक शुभोभावः प्रजायते । तस्मात् कर्मक्षयं सर्वं, ततः कल्याण-मश्नुते ॥" अर्थात्-चैत्यवन्दन सम्यक् प्रकार करने से शुभ भाव उत्पन्न होते है। शुभ 'भावों से कर्मों का क्षय होता है । कर्मक्षय से आत्मकल्याण होता है। श्वेतांवर जैनों की द्रव्य-भाव पूजन विधि 1. स्नान पूजा श्रावक-श्राविकायें (गृहस्थ पुरुष-स्त्रियां) प्रतिदिन जिनमन्दिर में जाकर प्रायः • स्नान पूजा का आयोजन करते हैं। यह पूजा करने का मूल उद्देशा प्रभु जिनेन्द्र देव के च्यवन (गर्भावतार) तथा जन्म होने पर पूजा करके उनके च्यवन और जन्म दोनों कल्याणकों का महोत्सव मनाना है इस पूजा में प्रायः वे सभी बातें आती हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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