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________________ 220 प्रभो। आप ही मेरे सच्चे देव हैं (इस बात की उद्घोषणा करने के लिए शक्रेन्द्र ने आपके पांचों कल्याणकों के अवसर पर सुघोषा घंटा बजवाकर सब देवलोकों के देवों, देवियों देवेन्द्रों को सूचना दी थी) धीरे-धीरे घंटा बजाना चाहिए। हम लिख आए हैं कि पूजा के मुख्य तीन भेद हैं-अंग-अग्र-भाव पूजा। (1) अंग प जा करने से सब प्रकार के विघ्न दूर होते हैं । (2) अग्र पूजा करने से सुखों, वैभवों तथा समृद्धियों की प्राप्ति होती है । (3) भावप जा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। (4) भगवान की आशातना रहित विधि-पूर्वक पूजा करने से भव्य प्राणी मानव जन्म में संसार के सुख-ऐश्चर्य भोगकर स्वर्गादि में उच्च अवस्था को प्राप्त करता है और अन्त में मनुष्य जन्म पाकर धर्म और शुक्ल ध्यान को प्राप्त कर सर्वकर्मक्षय कर मोक्ष पाकर जन्म-जरा-मृत्यु रहित अशरीरी अवस्था में शाश्वत सिद्ध पद प्राप्त करके अजरामर हो जाता है शुभ धर्मध्यान से पुण्योपार्जन करता है और शुद्ध शुक्ल ध्यान से जीव निर्वाण प्राप्त करता है। ___ 11. प्रभु पूजा से हृदय परिवर्तन प्रभु की उपासना-भक्ति-पूजा करने से अनुचित कार्यों का त्याग करने की भावना जाग्रत होती है। चैत्यवन्दन विधि में हम सदा 'जयवीयराय' प्रार्थना सूत्र के पाठ से अपने कर्तव्यों का स्मरण करते हैं और भावना करते हैं कि जयवीयराय ! जगगुरु ! होउ ममं तुह पभावओ भयवं! । भबनिब्वेओ। मग्गाणुसारिया इठ्ठफल सिद्धि ॥1॥ लोगविरुद्धच्चाओ गुरुजन पुआ परत्यकरणच । सुहगुरु जोगो तन्वयणसेवणा आभवमखडा ॥2॥ वारिज्जई जइ वि नियाण-बंधण वीयराय ! तुह समए। तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे-भवे तुम्ह चलणाणं ॥3॥ दुक्ख-क्खओ कम्म-क्खओ, समाहि-मरणं च बोहि-लाभो अ। सपज्जउ मह एवं तुह नाह ! पणाम करणेणं ॥4॥ सर्वमंगल-मांगल्यं सर्वकल्याण कारणं । प्रधाणं सर्वधर्माणां जैन जयति शासणं ॥5॥ अर्थात् -हे राग-द्वेष रहित जगद्गुरु ! आपकी जय हो। हे भगवन् ! आपकी भक्ति-पूजा आदि के प्रभाव में संसार से निर्वेद केलिए उत्तम मार्ग का अनुसरण करने की योग्यता प्राप्त हो जिससे वांछित फल, शुद्ध निर्मल आत्मधर्म की सिद्धि हो। हे प्रभो। आपकी भक्तिपूर्वक पूजा के प्रभाव से (1) लोक में जो-जो कार्य अनुचित माने जाते हैं, उनका त्याग हो । (2) माता-पिता, विद्यागुरु, अपने से बड़े भाइयों-बहनों आदि गुरुजनों की सेवा, विनय, आदर भक्ति आज्ञा पालन इनकी भक्ति करने का अवसर सदा मिलता रहे। (3) परोपकार करने की शक्ति प्राप्त हो। (4) सद्गुरु का समागम प्राप्त हो और उनके वचनों का पालन करने के लिए सदा जागरूक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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