SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 219 समावेश अग्रपूजा में हो जाता है। अग्रपूजा कम से कम प्रभु प्रतिमा से तीन हाथ तथा अधिक से अधिक साठ हाथ दूर से करनी चाहिए। अंग और अंग्रप जा-द्रव्य पूजा कहलाती है । यह अष्टप्रकारी पूजा का स्वरूप कहा । द्रव्यपूजा से निवृत होकर-फिर तीसरी बार 'निसीहि' एक बार या तीन बार कहनी चाहिए। इस निसीहि से द्रव्यपूजा का भी त्याग हो जाता है और भावपूजा रूप" चैत्यवंदन आदि की विधि प्रारंभ होती है । चैत्यवन्दन भी विधिपूर्वक करनी चाहिए। इधर-उधर किसी तरफ भी ध्यान न करके, न झांक कर केवल प्रभु जी के सन्मुख ही दृष्टि रखनी चाहिए चैत्यवन्दन विधि में स्तवन, स्तुति आदि ऐसे मधुर स्वर से कहना चाहिए, जिसे सुनकर दूसरों को भी आनन्द मिले, उनकी भावना भी प्रभु जी की भक्ति केलिए अधिक विकसित हो। स्तवन में प्रभु के गुणों का वर्णन होना चाहिए जिस स्तवन या भजन में तीर्थस्थल, तिथि महात्म्य आदि का वर्णन हो इन्हें अथवा मुनि राजों के गुण-गान वाले स्तवन भजन यहां नहीं बोलने चाहिये । स्तवन बहुत ऊंचे स्वर में न गाकर धीरे-धीरे कहने चाहिये जिससे शांतिपूर्वक गाते हुए सुनने वालों के भाव भी जाग्रत हों। शोर-गुल से अन्य दर्शन-पूजन करने वाले स्त्री-पुरुषों को बाधा न पहुंचे। नत्य, स्तवन, स्तोत्र, चैत्यवन्दन आदि की विधि को भावप जा कहते हैं । कायोत्सर्ग करते समय दृष्टि नासाग्न अथवा प्रभु जी के सामने रहनी चाहिए। (10) नत्यादि पूजा-कायोत्सर्ग पार लेने के बाद-चामर प जा, नत्यादि करने की भावना हो तो बड़े उत्साहप र्वक प्रभु जी के सामने नृत्य करना चाहिए। नत्यपूजा से रावण ने 'तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया था। कहा भी है कि लंकापति रावण बली, निज हाथ में वीणाधरी। शुभ नाच जिन आगे करी, पदवी जिनेश्वर पावेगा ॥1॥ चैत्यवन्दन आदि से देवदर्शन-पूजन का काम भी समाप्त हो जाता है ।10 यह तीन प्रकार की अंग-अग्र-भाव पूजा करने के बाद फिर यह दिखलाने के लिए-'हे 8. पूजा दर्शन करते हुए दसत्रिकों का पालन करना चाहिए । इनके स्वरूप का हम वर्णन कर आये हैं। 9.प जा प्रारंभ करने से पहले श्री मंदिर जी में पुजारी से शंख बजवाना चाहिए, इससे क्षुद्रोपद्रव सब शांत हो जाते हैं। 10. चैत्यवन्दन करते समय जहाँ बैठना हो वहाँ उत्तरासंग (दुपट्टे) के एक पल्ले से भूमि की तीन बार पुडिलेहना करनी चाहिए। तथा उत्तरासंग के दूसरे पल्ले को अथवा रूमाल को मुख के आगे रखकर चैत्यवन्दन का पाठ बोलना चाहिए। ऐसा करने से जीव विराधना तथा थूक-म्लेष्म आदि के श्री मन्दिर जी में गिरने की सम्भाना नहीं रहती। उत्तरासंग से तीन प्रयोजन सिद्ध होते हैं - मुखवात्रिका, चरवला तथा जिनऊ। जिससे जीव की जयणा तथा जिनाज्ञा की स्वीकृति एवं पालन होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy