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16. मानसरोवर के किनारे पर सिलवन नगर है । यहाँ 104 शिरबद्ध जैन मंदिर हैं । रत्नों से जड़ित महामनोज्ञ हैं । उनके आगम दीक्षा समय के पूजन का सम र्थन करते हैं । इस वन में जैनमंदिर लगभग तीस हजार होंगे। उनमें 52 चैत्यालय - नंदीश्वर द्वीप की नकल बन रहे हैं। यह सुहावना वन सरोवर की उत्तर दिशा में है। इस वन में जंगली जीवों का बहुत भय है । यहाँ नन्दीश्वर द्वीप के 52 चैत्यालयों का - बहुत मेला भरता है । परन्तु जीवों का भय रहता है ।
17. तिब्बत चीन की सीमा पर दक्षिण दिशा की ओर हनुवर देश में दस-दस पन्द्रह - पन्द्रह कोस पर जैनों के कई नगर और मन्दिर हैं ।
18. हनुवर देश के उत्तर सिरे पर धर्मांच नामक नगर है । इस नगर की उत्तर ओर एक दीर्घवन है । उस वन में बहुत संख्या में जैनमन्दिर हैं। यहां के राजाप्रजा सब जैनी हैं । यहाँ के राजा प्रजा सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी क्षत्रीय हैं । इस नगर में 1500 घर जैनों के हैं अनेक जैनमन्दिर रत्न जड़ित महाशिखरबद्ध हैं ।" इत्यादि
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्राचीन काल से ही जैन लोग अनेक अवस्थाओं की जिनप्रतिमाओं की बन्दना, पूजा, उपासना करते रहे हैं और इससे यह बात भी - स्पष्ट हो जाती है कि प्राचीन जैन परम्परा से अलग होकर जब दिगम्बर पंथ की स्थापना कुंदकुंदाचार्य ने की तब मात्र तीर्थंकर की नग्न मूर्ति के सिवाय अन्य प्रकार की
प्रतिमाओं की पूजा उपासना का निषेध किया । परन्तु प्राचीन जैन परम्परा जो आज श्वेतांवर जैन परम्परा के नाम से प्रसिद्ध है उसमें आज तक उपर्युक्त सब प्रकार - प्रितिमाओं की उपासना अर्चा चालू है । अतः ये सब प्रतिमाएँ श्वेतांवर जैन अम्नाय की होने से श्वेतांबर जैन अम्नाय स्वतः विश्व व्यापक और प्राचीन सिद्ध हो जाती है !
मौर्य सम्राट अशोक के पौत्र सम्राट संप्रति ने धर्मगुरु श्वेतांवर जैनाचार्य आर्य - सुहस्ती के उपदेश से अपने राज्य काल में अनेक गृहस्थ जैन विद्वानों को भारत के बाहर के दशों में भी जैनधर्म के प्रचार और प्रसार के लिए जैन साधु के वेष में भेजा था ऐसा जैन साहित्य में वर्णन मिलता है । उन देशों में लामचीदास की यात्रा वाले देश भी सम्मिलित थे । इस सम्राट ने चीन पर चढ़ाई की थी, और उसका बहुत बड़ा भाग • हथिया भी लिया था । कहते हैं कि इसी सम्राट के भय से चीन को अपने बचे हुए क्षेत्र को बचाने के लिए बहुत बड़ी दीवार का निर्माण करना पड़ा था । सम्राट संप्रति ने अपने अधीन नरेशों को यही आदेश दिया था कि 'यदि वे मेरी कृपादृष्टि चाहते हैं तो अपने अपने राज्य में जैनधर्म के मंदिरों का निर्माण तथा जैनपर्वो को महामहोत्सव के रूप में राज्य की ओर से करने कराने की व्यवस्था करें। सम्राट को आप लोगों से
1. लामचीदास ने यह यात्रा 22 वर्षों में पूरी की। वे पैदल 9864 कोस चले । यह यात्रा विक्रम संवत् 1806 से 1828 तक पूरी की। उन्होंने इस यात्रा के विवरण की 104 प्रतियां लिखकर भिन्न भिन्न जैन भण्डारों में दी । इनमें उन्होंने लिखा है कि मैंने देव की साहयता ले कैलाश की यात्रा की ।
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