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________________ 202 प्रभु पार्श्वनाथ सन्तानीय श्री कपिल केवली से प्रतिष्ठा करवाकर उस प्रतिमा का कल्पवृक्ष की पुष्पमालाओं से पूजन कर चन्दन की पेटी में बन्द कर दिया और उस पर यह लिखकर कि 'यह देवाधिदेव की प्रतिमा है, जो देवाधिदेव की स्तुति पूर्वक इस पेटी को खोलेगा वह इसे प्राप्त कर पायेगा।" उसे सिन्धु नदी में जाते हुए एक जलपोत (जहाज़) में (आकाश मण्डल से) डाल दिया । जब यह जहाज़ सिंधु सौवीर देश के महाराजा उदयन की राजधानी वीतभयपत्तन में पहुंचा तब उस पेटी को नदी तट पर उतार दिया । तब महाराजा उदयन की पटरानी प्रभावती जो महावीर के मामा राजा चेटक की पुत्री तथा जैनधर्म की दृढ़ श्रद्धावान श्राविका थी । वहां आकर देवाधिदेव की स्तुति करके उस पेटी को खोला और उस प्रतिमा को लेकर मंदिर का निर्माण कराकर उसमें स्थापन किया और तीनों समय उस प्रतिमा की भक्ति भाव से पूजा अर्चा करने लगी । ऐसी अलंकृत प्रतिमा में तीर्थंकरों की तीन अवस्थाओं का समावेश होता है। 1-जन्म कल्याणक के अवसर पर इन्द्रों द्वारा मेरुपर्वत पर जन्माभिषेक के बाद बालक तीर्थंकर को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित करना । 2-गृहस्थावस्था में भाव मुनि अवस्था में कायोत्सर्ग मुद्रा में तथा 3-दीक्षा लेने के लिए घर से प्रयाण करते समय शिविका में विराजमान समम के अलंकारों के चिन्ह अंकित होते हैं । बालक तीर्थंकर में, भाव मुनि की अवस्था में, तथा दीक्षा के वरघोड़े के समय-इन तीनों अवस्थाओं में तीर्थंकर में इस अलंकृत वेशभूषा में आसक्ति का सर्वथा अभाव होने से उन पर भोग तथा परिग्रह का आरोप करना बेसमझी के सिवाय और कुछ नहीं। हम पहले लिख आये हैं कि तीर्थकर की प्रतिमा को रथादि में विराजमान करना अथवा स्वर्णसिंहसन, छत्रत्रय आदि अष्टप्ररिहार्य होने पर भी जैसे तीर्थंकर निष्परीग्रही हैं वैसे ही जीवितस्वामी की प्रतिमा अलंकृत होने पर भी सर्वथा निष्पारिग्रही है । इन सब आवस्थाओं में मूर्छा का अभाव होने से । इत्यादि और भी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की अनेक प्रकार की जिन प्रतिमाएं हैं। 8. जिन का परिचय सूर्यवंशी क्षत्रीय लामचीदास गोलालारे जैनी ने अपनी कैलाश यात्रा के वर्णन में किया है । यह व्यक्ति संवत् 1806 से भूटान देश से कैलाश की यात्रा के लिए चला । नेपाल, ब्रह्मा, चीन, कोचीन, तिब्बत आदि से होते हुए मानसरोवर पर पहुंचा और देव की साहयता से कैलाश तीर्थ पर चढ़कर यात्रा की। इस यात्रा में रास्ते के अनेक नगरों का परिचय देते हुए वहां के जिनमन्दरों तथा जिनप्रतिमाओं का वर्णन किया है । जिस का संक्षिप्त परिचय यहां देते हैं। 9. कोचीन मुल्क में कहीं-कहीं अमेढना जाति के जैनी हैं जो तीर्थंकर की प्रतिमा सिद्ध आकार की मानते हैं । ये प्रतिमायें निर्वाण कल्याणक की है। 10. चीन देश के ढांकुल नगर को घेरे हुए 18 कोस का कोट है। यहां का राजा तथा प्रजा सव जैनधर्म को मानते हैं। वे सब अवधिज्ञान अवस्था की जिन 1. इस विषय की विस्तृत जानकारी के लिए देखें हमारा जैन इतिहास का ग्रंथ-मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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