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________________ 200 अर्थात--जब तीर्थंकर प्रभु दीक्षा ग्रहण करते हैं तब शक्रेन्द्र उनको वस्त्र देता है जो वे धारण करते हैं। वह देवदूष्य वस्त्र प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकरों के (एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक रहकर) गिर जाने से पश्चात् वे नग्न रहे। तथा चौबिस तीर्थंकरों का देवेन्द्र द्वारा दिया हुआ वस्त्र गिर जाने से पश्चात् वे नग्न रहे। (3) एक धातु की प्राचीन नग्न खड़ी ध्यानावस्था में सिर पर जटाजूट वाली और कंधों पर लटकते केशों वाली कटक (उड़ीसा) से प्राप्त हुई है । यह प्रतिमा भी प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की है । जो वहां इंडियन म्युजियम में सुरक्षित है । (देखें चिन्न नं. 61०84) (4) इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए यहां पर एक और प्राचीन प्रतिमा का परिचय देते हैं। (देखें चित्र नं0 2 पृ० 83) यह मूर्ति पद्मासन में बीचोबीच बैठी काउसग्ग मुद्रा में कंधों पर लटकते बालों वाली है। इस के दायें बायें तीर्थकर की एक-एक मूर्ति काउसग्ग मुद्रा में खड़ी नग्न हैं। इन के नीचे दो साधुओं की मतियां हैं जो आमने-सामने बैठे हैं और उनके बीच में स्थापनाचार्य रखे हैं। एक तरफ़ के साधु के हाथ में मुखवस्त्रिका है तथा दूसरी तरफ़ के एक साधु अपने हाथों से मुख-वस्त्रिका की पडिलेहना कर रहा दिखलाई दे रहा है। (अ) इस प्रतिमा में हाथ में लिये हुए मुखवस्त्रिका वाले दो साधुओं की मूर्तियों से स्पष्ट है कि ये दोनों श्वेताम्बर जैन साधु हैं। (आ) क्योंकि दिगम्बर साधु अपने पास मुखवस्त्रि का नहीं रखते । इसलिए यह प्रतिमा दिगम्बर पंथियों की नहीं है। (इ) अतः इससे यह भी स्वयं सिद्ध हो जाता है कि आज कल जो अपने आप को जैन कहने वाले साधु अपने मुख पर चौबीस घंटे मुखवस्त्रिका बांधे रहते हैं और अपने आपको प्राचीन श्वेताम्बर मानने का दावा करते हैं। वे प्राचीन श्वेताम्बर जैन परम्परा से नहीं हैं। जो साधु मुखवस्त्रिका मुख पर न बांधकर बोलते समय अपने हाथ में लेकर मुखवस्त्रिका को मुख पर रख कर बोलते हैं। वास्तव मेंवही श्वेताम्बर जैन धर्म के अनुयायी प्राचीनतम परम्परा से हैं। (देखें चित्र नं0 2 पृ० 83) (यह प्रतिमा देवगढ़ किले के मंदिर नं0 4 में है) (5) दिगम्बरी तीर्थंकरों की मात्र नग्न प्रतिमाएं बन्द आंखों वाली, अष्ट प्रतिहार्य रहित, तथा 'उनके सिर तथा दाढ़ी मूंछ के केशों रहित अथवा काली कीकी के बिना आंखों वाली मानते हैं। (आ) किन्तु श्वेतांबर जैन तीर्थंकर की नग्नावस्था तथा अनग्न अवस्था वाली दोनों प्रकार की मानते हैं। क्योंकि उनकी मान्यता के अनुसार तीर्थकर की दोनों अवस्थाएं होती हैं। इस बात का हम देवदूष्यवस्त्र ग्रहण तथा पश्चात् उसके गिर जाने पर नग्न अवस्था का स्पष्ट वर्णन कर आये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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