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मुष्टि के शेष केश इन्द्र की प्रार्थना पर रहने दिए । यथा
"यावत आत्मवैव चतुर्थे मौष्टिक लोचं करोति, चतुसभिर्मुष्टिभि-लौंचे कृते सति अविशिष्टां एकां मुष्टि सुवर्ण वर्णयोः स्कंधयोपरि लुढंति कनक-कलसोपरि विराजमानानो नीलकमलमिव विलोक्य हृष्टचित्तस्य शक्रस्य आग्रहेण रक्षत्वान् ।।"
(कल्प० गा० 50-51) इससे स्पष्ट है कि इस चौबीसी प्रतिमा के बीच में बैठी प्रतिमा सिर पर जटाजूट केश और कंधों पर लटकते हुए केशों वाली श्री ऋषभदेव की प्रतिमा है (देखें चित्र नं0 3 1083) जो कि श्वेताम्बर जैनों की मान्यता वाली है। परन्तु दिगम्बर पंथी मानते हैं कि श्री वृषभदेव ने पंचमुष्टि लोच करके दीक्षा ग्रहण की थी, इसलिए उनके सिर पर केशों का सर्वथा अभाव था । उसका वर्णन इस प्रकार है । यथा :--
"ततः पूर्वमुखं स्थित्वा कृतसिद्ध नमस्क्रियः। केशानलंच बद्ध पल्यङ्कः पंचमुष्टिकम् ॥200॥ निलंच्य बहु मोहाग्रवल्लरी: केशवल्लरी :। जात रूपधरो धीरो जैनी दीक्षाम पाददे ॥201॥
(दिगम्बर जिनसेनाचार्मकृत आदिपुराण पर्व 17) अर्थात्-तदन्त र भगवान् (श्री ऋषभदेव) पूर्वदिशा की ओर मुंह कर पद्मासन से विराजमान हुए और सिद्ध परमात्मा को नमस्कार करके पंचमुष्टि केशलोच किया (उसके दाढ़ी, मूंछ और सिर पर एक भी केश बाकी न रहा)। धीर भगवान् ने मोहनीयकर्म की मुख्यलताओं के समान केशरूपी लताओं को लोच कर यथाजात अवस्था को धारण कर जिनदीक्षा धारण की।
(आ) इस प्रतिमा पर पुष्पाहार (पुष्पवृष्टि) बाजे-गाजे देव-दुन्दुभि, प्रभामण्डल (भामंडल), सिंहासन, छत्रत्रय आदि अष्टप्रातिहार्य हैं जो वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर के केवलज्ञान से लेकर निर्वाण पाने से पहले तक रहते हैं। अत: यह प्रतिमा केवलज्ञानी तीर्थंकर अवस्था की है। दिगम्वर पन्थ की मान्यता की जिनप्रतिमायें अष्टप्रतिहार्य रहित होती हैं। इसलिये उनकी मान्यता के प्रतिकूल हैं और श्वेताम्बर जैन अष्टप्रातिहार्य सहित जिनेन्द्रदेव की प्रतिमायें भी मानते हैं । अतः इससे भी स्पष्ट है कि यह श्वेताम्बर जैनो की प्रतिमा है।
(इ) श्वेताबर जैनों की मान्यता है कि तीर्थंकर जब दीक्षा लेते हैं तब उनको इन्द्र एक देवदूष्य वस्त्र देता है जो बाद में गिर जाने के बाद वे नग्न रहते है । इसका वर्णन श्री कल्पसूत्र में इस प्रकार है"प्रथमान्तिम जिनयोः शक्रोपनीतं देवदूष्यापगमे सर्वदा अचेलकत्वम्।
(कल्पसूत्र सुबोधिका व्या० 1 पृ. 1) "चतुर्विशतेरपि तेषां (जिनानां) देवेन्द्रोपनीतं देवदूष्यापगमे तदभादादेव अचे. लकत्वं ।" (कल्पसूत्र किरणावली व्याख्यान 1 पृष्ठ 1)
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