SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 195 (2) विकृत आकारवाली प्रतिमा भी अशुभ है। ऐसी प्रतिमा भी घर मन्दिर में नहीं रखनी चाहिये । जैसे कि-प्रतिमा टेढ़ी नासिका वाली हो तो बहुत दुःखकारक है। छोटे अवयव वाली हो तो क्षय कारक है। खराब नेत्रों वाली हो तो विनाश कारक है। छोटे मुखवाली हो तो भोग की हानिकारक है। छोटी कटिवाली आचार्य का नाशकारक है। छोटी जंघावाली हो तो पुत्र और मित्र का क्षय करती है। हीन आसन वाली हो तो ऋद्धि नाशकारक है, हाथ और चरण से हीन हो तो धन क्षयकारक है। ऊर्ध्व मुखवाली प्रतिमा धन की नाशकारक है। टेढ़ी गर्दन वाली हो तो स्वदेश का विनाश करने वाली है। अधोमुख वाली हो तो चिंता उत्पन्न कारक है । ऊंचे, नीचे मुखवाली हो तो विदेशगमन कराने वाली होती है। विषम आसनवाली व्याधिकारक है। अन्याय के धन से प्राप्त प्रतिमा दुष्काल कारक है । न्यूनाधिक अंगवाली हो तो स्वपक्ष और परपक्ष को कष्ट देने वाली होती है। प्रतिमा यदि रौद्र (भयानक) रूप वाली हो तो कराने वाले का और अधिक अंगवाली हो तो शिल्पी का विनाश करे। दुर्बल अंगवाली हो तो द्रव्य का विनाश करे । पतले उदरवाली हो तो दुर्भिक्ष करे। ऊर्ध्व मुखवाली हो तो धन का नाश करे । तिरछी दृष्टिवाली हो तो अपूजनीय रहे। अति गाढ़ दृष्टि वाली हो तो अशुभ करे । अधोदृष्टि बाली हो तो विघ्न कारक जानना। (3) घर मंदिर (गृह चैत्यालय) पर ध्वजादण्ड नहीं चढ़ाना चाहिए। (4) जिनप्रतिमा की स्थापना दीवाल के साथ सटाकर कदापि न करें। क्यों 'कि यह अशुभकारी है। (5) प्रभु की पूजा (1) ईशान कोण (उत्तर-पूर्व दिशा की कोण), (2) पूर्वदिशा अथवा उत्तर दिशा की तरफ़ मुख रख कर करनी चाहिए। (6) धातु, पाषाण, रत्नों की प्रतिमाओं का अभिषेक (स्नान) चन्दन तथा 'पुष्पों से पूजा की जाती है। काष्ठ कपड़े अथवा काग़ज़ादि पर चित्रित मूर्ति का पानी आदि से स्नान तथा केसर चन्दन से तिलक विलेपन नहीं कराना चाहिए। इनकी अंग पूजा वासक्षेप तथा पुष्पों से करनी चाहिए। जल से स्नान कराने तथा केसरादि के तिलक से ऐसी मूर्तियां, चित्र खराब हो जाते हैं। यदि काष्ठादि की प्रतिमा का अभिषेक कराने की भावना हो तो उसे दर्पण के सामने रखकर दर्पण में पड़े प्रतिबिम्ब पर पानी डालकर स्नान करा सकते हैं। विधिपूर्वक जिनप्रतिमा कराने वाले को लाभ । विधिपूर्वक जिनबिम्ब कराने वाले को सदा समृद्धि की वृद्धि होती है। दारिद्रय, दुर्भाग्य, अशक्त शरीर, दुर्गति, हीनबुद्धि, अपमान, रोग और शोकोदि दोष कभी नहीं होते । जिनप्रतिमा जिनेश्वर समान ही कही है । समुद्र में भी जिनप्रतिमा के आकार बाले मत्स्य उत्पन्न होते हैं। उन मत्स्यों को देखकर दूसरे आकार वाले मत्स्य जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy