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शब्द का प्रयोग है जो आन्तरिक पवित्रता या आन्तरिक विशुद्धि का सूचक है ।। जैन धर्म के अनुसार अध्यात्मवाद वह दृष्टि है जो यह मानती है कि भौतिक सुख सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है । देहिक एवं आर्थिक मूल्यों के परे उच्च मूल्य भी हैं और इन उच्च मूल्यों की उपलब्धि ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है । जैन विचारकों की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है पदार्थ को परममल्य न मानकर आत्मा को परममूल्य मानना । भौतिकवादी दृष्टि मानवीय दुःख और सुख का आधार वस्तु को मानकर चलती है उसके अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य है। भौतिकवादी सुखों की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उसकी उपलब्धि हेतु चोरी, शोषण और संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख और दुःख का केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। जैनदर्शन के अनुसार सुख और दुःख आत्मकृत है । अत: वास्तविक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों से न होकर आत्मा से होती है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा ही अपने सुख दुःखों का कर्ता और भोक्ता है । वही अपना मित्र है और वही अपना शत्रु है। सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुष्प्रतिष्ठित अर्थात् दुर्गणों में स्थित आत्मा शत्र है । आतुरप्रकरण नामक जैन ग्रंथ में अध्यात्म का हार्द स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ज्ञान और दर्शन से युक्त शाश्वत आत्मतत्त्व ही मेरा है, शेष सभी बाह्य पदार्थ संयोग से उपलब्ध हुए हैं। इसलिये ये मेरे अपने नहीं हैं। इस संयोगजन्म उपलब्धियों को अपना मान लेने या उन पर ममत्व रखने के कारण ही जीवः दुख परम्परा को प्राप्त करता है अतः उन संयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व भाव का सर्वथा विसर्जन कर देना चाहिये । संक्षेप में जैन अध्यात्मवाद के अनुसार देह आदि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग ही साधना का मूल स्रोत है । वस्तुतः जहां अध्यात्मवाद पदार्थ के स्थान पर आत्मा को अपना साध्य मानता है, वहां भौतिकवाद में पदार्थ ही परम मूल्य बन जाता है । अध्यात्मवाद में आत्मा का ही परम मूल्य होता है । जैन अध्यात्मवाद आत्मोपलब्धि के लिये पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग आवश्यक मानता है। उसके अनुसार ममता के. विसर्जन से ही समता (Equaminity) का सर्जन होता है।
जैन अध्यात्मवाद को लक्ष्य आत्मोपलब्धि
जैन धर्म में ममत्व के विसर्जन को ही आत्मोपलब्धि का एक मात्र उपाय इसलिए माना गया है कि जब तक व्यक्ति में ममत्व बुद्धि या आसक्तिभाव रहता है तब तक व्यक्ति की दृष्टि 'स्व' में नहीं अपितु 'पर' अर्थात् पदार्थ में केन्द्रित रहती है।
5-उत्तराध्ययन सूत्र 20/30 (पूर्वार्द्ध) 6-वही 20/37 (उत्तराद्धं)। 7-आतुरप्रकरण 26/29
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