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जैन अध्यात्मवाद : प्राधनिक सन्दर्भ में
मानव जाति को दुःखों से मुक्त करना ही भगवान महावीर का प्रमुख लक्ष्य या। उन्होंने इस तथ्य को गहराई से समझने का प्रयत्न किया कि दुःख का मूल क्या है। इसे स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि समस्त भौतिक और मानसिक दुःखों का मूल व्यक्ति को भोगासक्ति में है। । यद्यपि भौतिकवाद मनुष्य की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा दुःखों के निवारण का प्रयत्न करता है किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता, जिससे दुःख का यह स्रोत प्रस्फुटित होता है । भौतिकवाद के पास मनुष्य की तृष्णा को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है । वह इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा मानवीय अकाँक्षाओं को परितृप्त करना चाहता है किन्तु यह अग्नि में डाले गये घी के समान उसे परिशान्त करने की अपेक्षा बढ़ाता है । उत्तराध्ययन सत्र में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा गया है कि चाहे सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी खड़े हो जायें किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूरा करने में असमर्थ है। न केवल जैनधर्म अपितु सभी अध्यात्मिक धर्मों ने एक मत से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि समस्त दु:खों का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है किन्तु तृष्णा की समाप्ति का उपाय इच्छाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं है । भौतिकवाद हमें सुख और सुविधा के साधन तो दे सकता है किन्तु वह मनुष्य की आसक्ति या तृष्णा का निराकरण नहीं कर सकता। इस दिशा में उसका प्रयत्न तो टहनियों को काटकर जड़ को सींचने के समान है। जैनागमों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है, उसकी पति संभव नहीं है। यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण भ्रष्टाचार एवं तज्जनित दुःखों से मुक्त करना चाहते हैं तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का त्याग करके आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा।
अध्यात्मवाद क्या है ?
किन्तु यहां हमें यह समझ लेना होगा कि अध्यात्मवाद से हमारा तात्पर्य क्या है ? अध्यात्म शब्द की उत्पत्ति अधि+आत्म से है। अर्थात् वह आत्मा की श्रेष्ठता या उच्चता का सूचक है। आचारांग में इसके लिये अज्झप्प या अज्झत्थ
1-उत्तराध्ययन सूत्र 32/9 1 2-वही 9/48। 3-वही 9/48 1 4-आचारांग 5/36; 4/29
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