SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 191 देखिये शाश्वत जिनप्रतिमाओं तथा शाश्वत जिनमन्दिरों का वर्णन मिलता है। जहाँ जहाँ शाश्वत चैत्यों का वर्णन है वहां वहां इन चारों नाम वाले तीर्थंकरों की भूर्तियां हैं। आजकल भी शाश्वत जिन भगवन्तों की प्रतिमाओं का निर्माण कराकर उनकी मन्दिरों में स्थापनाऐं तथा प्रतिष्ठायें करवाकर उनकी पूजा उपासना करते है । ये चैत्य अकृत्रिम, शाश्वत चैत्य नहीं हैं किन्तु कृत्रिम होने से अशाश्वत चैत्य हैं। इन्हें निश्राकृत अथवा अनिश्राकृत चैत्य माना जावेगा। यहां चारों शाश्वत नामों के तीर्थंकरों की प्रतिमायें प्रतिष्ठित होने की अपेक्षा से शाश्वत जिनचैत्य भी कहते हैं उपर्युक्त पांच प्रकार के चैत्यों का वर्णन बृहत्कल्प भाष्य, व्यवहार सूत्र, प्रवचन सारोद्धार आदि में आया है। 6. चैत्य सार्मिक-ये चैत्य बड़ों, पिता, पितामह आदि की प्रतिमा स्थापन करने से बनता है । गुरुमंदिरों का भी इसी में समावेश होता है। कैसी जिनप्रतिमायें पूजने योग्य हैं ? उपयूक्त पांच प्रकार के चैत्यों में तीन प्रकार अशाश्वत निश्राकृत, अनिश्राकृत, “भक्तिकृत) चैत्यों के दोषों का शास्त्रों में इस प्रकार वर्णन है । इन दोषों रहित जिनेन्द्र प्रतिमा (चैत्यों) को पूजने से भव्य जीवों को रत्नत्रय आदि लाभों की प्राप्ति होती है। शाश्वती जिन प्रतिमाएं सदा निर्दोष होने से सदा सर्वदा पूजने और वन्दन करने योग्य कही हैं। __ जो कृत्रिम (अशाश्वत) जिनप्रतिमा (चैत्य) है उसके कपाल, नासिका, मुख' ग्रीवा, हृदय, नाभि, गृह्य, साथल, जानु (घुटने) पिंडलियां और चरण इन ग्यारह अंगों में वास्तुशास्त्र आदि ग्रंथों में वर्णन किये हुए प्रमाणवाली हों। नेत्र, कान, कंधे, हाथ और अंगुलियां आदि सब अव्यव दोष रहित हो । पर्यकासन से युक्त हो, खड़ी कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजित हो, सर्वागसुन्दर हो तथा विधिपूर्वक मंदिर आदि में 'प्रतिष्ठित हो, ऐसी प्रतिमा पूजने से सब भव्य प्राणियों को रत्नत्रय आदि लाभों की 1. पांच भरत, पांच ऐरावत इन दस क्षेत्रों में एक सर्पिणी में प्रत्येक क्षेत्र में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं । इस प्रकार दस क्षेत्रों में इस अवसर्पिणी काल में दस चौबीसियाँ हुईं । भूतकाल की उत्सर्पिणी में भी दसों क्षेत्रों में दस चौबीसियां हुई और भविष्य की उत्सर्पिणी में भी दस चौबीसियां होंगी; ऐसा नियम है। इस प्रकार कुल मिलाकर तीस चौबीसियों में 720 तीर्थंकर होते हैं । इन सात सौ बीस तीर्थंकरों में उपर्युक्त चार नाम के तीर्थकर अनादि काल से होते आये हैं और अनन्त काल तक होते रहेंगे। इसीलिए इन्हें शाश्वत जिन कहते हैं और इनकी प्रतिमाओं को शाश्वत चैत्य कहते हैं। शाश्वत, स्वभाविक अकृत्रिम जिनमंदिरों में इन्हीं चार तीर्थंकरों की प्रतिमाएं विराजमान होती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy