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________________ 183 अष्ट प्रातिहार्य से रहित होने से छद्मस्थावस्था में अणगार की ध्यान मुद्रा की है । अतः छद्मस्थ वैरागी अवस्था की प्रतिमा केवली की प्रतिमा कैसे? दिगम्बर मंदिरों में पार्श्वनाथ की सर्पफन वाली प्रतिमाएं भी उनकी छदमस्थ अवस्था की केवलज्ञान होने से पहले की हैं, उन्हें भी पूज्य मानते हैं। अब प्रश्न यह है कि यदि तीर्थंकर की जल, फल, फूल पूजा में हिंसा है तो धूप, दीप, आरती, महाभिषेक में सचित जल से पूजा में इनसे भी विशेष अधिक हिंसा होने पर भी इसका निषेध क्यों नहीं ? यदि अलंकार आंगी पूजाओं में भोग-परिग्रह, आडम्बर है तो रथयात्रा में क्यों नहीं ? प्रतिष्ठा के अवसर पर प्रतिमा को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित करके पूजा रथयात्रा में भोगावस्था का आरोप कैसे नहीं ? पाठक इस विवरण को पढ़ आए होंगे। यदि न पढ़ा हो तो उस प्रकरण को पढ़कर जिज्ञासा पूरी करलें। अतः यहाँ उसका पिष्टपेषण करने की आवश्यकता नहीं। अपरंच प्राचीन पूजा पद्धति को सदोष बतलाकर भी और उसको बदलकर भी आश्चर्य तो यह है कि पूजा में सूखी सामग्री का प्रयोग करते हुए भी पूजा के जो पाठ बोलते हैं उन में सब सचित द्रव्यों के नाम ही आते हैं । पुष्टि के लिये इनके भी कतिपय प्रमाण देखिए (1) इसी पंथ के संस्थापक भैया भगवतीदास ने अपनी कृति ब्रह्मविलास में जिनप्रतिमा की फल पूजा के वर्णन में निम्नलिखित कवित कहा है (1) जगत जीव तिन्हें जाति के गुमानी भया। ऐसो कामदेव एक जोधा जो कहायो है। ताके शर जानी यत फूलन के वृन्द बहु । केतकी कमल कुंद केवरा सहायो है ॥ मालती महासुगन्ध बेल को अनेक जाति । चंपक गुलाब जिन चरणन चढ़ायो है। तेरी ही शरण जिन जोर न बसाय याको। सुमन सुं पूजो तोही मोहे ऐसे भायो है। तथा-दिगम्बर जिनवाणी संग्रह में कहा है कि-जन्माभिषेक में 108 कलशों के जल से अभिषेक करके प्रभु का श्रृंगारादि भी करते हैं सहस अठोतर कलसा प्रभु जी के सिर ढारई । फुनी शृंगार प्रमुख आचार सब करई ॥1॥ (2) दीपक तथा आरती पूजा के कवित्त ब्रह्मविलास में दीपक अनाये चहुं गति में न आवे कहुँ। वत्तिक बनाये कर्मवत्ति न बनतु है ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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