SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 179 विहार-स्थल, निर्वाण-स्थल, तपश्चर्या की भूमियां, साधनाधाम ये सब तीर्थ स्थान ही साधन बन सकते हैं। इसीलिए ऐसे स्थानों को जैनागमों में तीर्थ कहा है । ऐसे परम पवित्र स्थानों में प्रत्येक साधक यात्री की आत्मा में प्रकाश प्रकट होता है। जीवन की उच्चभूमिका प्राप्त होती है। आत्मदर्शन की झांकी होती है तथा पूर्वपुरुषों के जीवन दृश्य ऐसे किसी भी तीर्थ पर जाने से मूर्तिमान बनकर दृष्टिगोचर होते हैं । उनके आदर्श जीवन का अनुकरण करने के लिए आत्मा को प्रेरणा मिलती है । आत्मा तेजस्वी और प्रफुल्लित बनता है । मानसिक शुद्धता के साथ-साथ शारीरिक शुद्धता पाने का शुभावसर मिलता है। शरीर नश्वर है, इसकी शुद्धि क्षणिक है। आज का मानव इस बाह्य शुद्धि एवं तड़क-भड़क के पीछे अपने आपकी, शाश्वत आत्मा की पवित्रता और शुद्धि को भूलता जा रहा है। इसलिए मानव धीरे-धीरे दानव बनता जा रहा है। आत्मिक शुद्धि के बिना शारीरिक शुद्धि की कोई महत्ता नहीं। बाह्य शुद्धि मात्र से आत्मिक शुद्धि सम्भव नहीं, आत्मिक शुद्धि से बाह्य शुद्धि स्वयमेव हो जाती है । विचार तथा भावनाएं शुद्ध होते ही बाह्य आचार शुद्धि स्वयमेव हो जाएगी। इसमें कदापि संदेह नहीं है । मानसिक शुद्धि से ही इहलौकिक और पारलौकिक सुख सम्भव है। यहां तक कि कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर आत्मा संसार सागर से सदा केलिए पार हो जाएगा। और जन्म-मरण के चक्र से छूट कर शाश्वत सुख और शान्ति के स्थानभूत मोक्ष प्राप्त कर लेगा। अत: मुमुक्षु आत्माओं केलिए ऐसे तीर्थस्थान ही आचार-विचार और भावना की मलिनता से पवित्रता और शुद्धता पाने केलिए अचूक साधन हैं। दासोऽहं साधना के क्षेत्र में महापुरुषों ने 'दासोऽहं' का गम्भीर रहस्य समझाया है। 'दासोऽहं' की तीन भूमिकाएं हैं-(1) दासोऽई, (2) सोऽहं, (3) अहं । बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था-ये एक ही जीवन की तीन अवस्थाएं हैं और उनका प्रादुर्भाव समयानुसार होता है । इसी प्रकार आत्मविकास की उपरोक्त तीन भूमिकाओं का भी क्रमशः प्रकटीकरण होता है। यदि एक को त्यागकर दूसरी को पकड़ने चलें तो विकासक्रम के पथ पर पत्थर डालने तुल्य हो जाता है और पीछे उससे ठोकर लगने की भी सम्भावना होती है। गुणस्थानों के अनुसार विकासक्रम तीन भागों में बांटा जा सकता है-(1) 1 से 6 गुणस्थान प्रमत्तावस्था, (2) 7 से 10 गुणस्थान तक अप्रमत्तावस्था, (3) 11 से 14 गुणस्थान तक वीतराग अवस्था । (1) प्रमत्त अवस्था में विकास साधना का मंत्र है-'दासोऽहं । (2) अप्रमत्त अवस्था में 'सोऽहं' की साधना होती है एवं बीतरागत्व तो 'अहं' आराधना के फल समान ही होता है। क्रम छोड़ देने से जैसे धागे का गोला सारा ही अस्त-व्यस्त हो जाता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy