________________
178
रहती है। इस मलिनता से जड़ता के पुंज खड़े होते जाते हैं । जड़ता को दूर करने के लिए, उनसे मुक्ति पाने के लिए जीव सदा तरसता रहता है। वास्तव में मानव को शुद्धि और पवित्रता के लिए गढ़-अगढ़ आंतर स्वच्छता की आवश्यकता है । अतः मलिनता से स्वच्छ रहने के उपाय ढूंढ निकालने के लिए उसे सदा आतुरता बनी रहती है।
(1) शारीरिक मलिनता दो प्रकार की है। शरीरांगों की तथा आचार की। शरीरांगों की मलिता भी दो प्रकार की है-अस्वच्छता तथा रोगादि ।
(2) मानसिक मलिनता भी दो प्रकार की है-विचारों की और भाव
नाओं की।
दोनों प्रकार की शारीरांगों की मलिनता के कारण प्रकृति के प्रतिकूल आचरण है। इनकी स्वच्छता केलिए स्वच्छ जलवायु, मिट्टी, धूप, अग्नि लंघन और खुराकादि प्राकृतिक उपायों का सम्यक् प्रकार से सेवन करना अनिवार्य है इन उपायों से बाह्य शरीर की स्वच्छता तथा स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं और इस शरीरिक जड़ता से छुट्टी पा सकते हैं। दूसरी शारीरिक मलिनता आचार की है उसका आधार मानसिक मलिन विचारों तथा भावनाओं पर है। प्राणी के जैसे विचार और भावनाएं होंगी वैसे ही उस का आचार होगा । अर्थात् मानसिक मलिनता के प्रभाव से आचरण में मलिनता आती है। मानसिक विचार तथा भावनाएं जितनी पवित्र और शुद्ध होंगी, आचारण भी उतना ही पवित्र और शुद्ध होगा । मलिनता से बचने के लिए तथा स्वच्छता पाने के लिए मानव, पर्वत, नदी, सरोवर और समुद्र आदि की तरफ आकर्षित होता है। जहां स्वयं प्रकृति ने संसारी जीव को नहीं विगाड़ा। वहां जाने के लिए मन उत्कंठित रहता है । वहां जाकर गुलामी में से स्वतंत्रता का अनुभव होता है तथा प्रकृति के सौंदर्य से जीव को सुख एवं शांति का अनुभव होता है परन्तु मात्र प्राकृतिक दृश्य की सुन्दरता देखने से मलिनता दूर नहीं होती । पर्वत और नदियां आदि तीर्थ नहीं हो जाते । हिमालय अथवा मंसूरी आदि में प्राकृतिक सौंदर्यता देखने से मनोरंजन तो हो सकता है पर तीर्थ भावना नहीं होती । गंगा-यमुना आदि नदियों में स्नान करने से शारीरांगों की मलिनता तो दूर हो सकती है पर आचार-विचार-भावना शुद्धि आदि के लिए यह पर्याप्त नहीं हैं।
बाह्य आचारों, अभ्यंतर विचारों तथा भावनाओं की पवित्रता के लिये, कर्मबंधन से छुटकारा पाने के लिए एवं दुःखों से मुक्त होने की भावना से ही हमारी संस्कृति में तीर्थ अथवा तीर्थयात्रा का उद्भव होना मालूम होता है। इसलिए मात्र सैर-सपाटे से, स्नानादि से और प्राकृतिक सौंदर्य देखने से तीर्थयात्रा का लाभ सम्भव नहीं है।
आचार-विचार-भावना की शुद्धि के लिये यदि तीर्थयात्रा करने का हेतु हो तो हम वाह्य और अभ्यंतर पवित्रता पाने के लिए बैरागी, त्यागी, तपस्वी परमपूज्य, ज्ञानी, ध्यानी महापुरुषों के जन्म स्थान, उनके ज्ञान दर्शन प्राप्ति स्थान, क्रीड़ास्थल,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org