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________________ 167 आप मांस, हाड, चाम, मल, मूत्र आदि से भरे मानव शरीर में जिसमें साधु गुणों का सर्वथा अभाव है ऐसे विकृत आत्मा तथा गंदगी से भरे शरीर में साधु के गुणों का कल्पना करके पूज्य मानना धर्म मानते हैं और ऐसा करने से अपने आपको सम्यग्दृष्टि शिरोमणि मानते हैं। ___ तो बीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर जिनेश्वर देव की निर्दोष निर्विकार, पवित्र नासान दृष्टि पदमासनासीन अथवा खड़गासन में कायोत्सर्ग मुद्रा में योगातीत अवस्था में चौदहवें गुणास्थानवर्ती शैलेशीकरण में स्थित प्रतिमा में जिन का भावनिक्षेप निश्चय ही शुद्ध है ऐसे साक्षात् तीर्थंकर प्रभु की आत्मा की गुणों सहित कल्पणा करके उस प्रतिमा की वंदना, नमस्कार, भक्ति, उपासना, पूजा आदि करने में दोष क्यों ? प्रभु प्रतिमा तो न किसी को हानि पहुंचाती है और न ही किसी पर कुदृष्टि डालती है। प्रभु तो निश्चय से मोक्षगामी हो चुके हैं । यदि अन्य आकृतियों को देखकर उन-उन आकृति वालों का ज्ञान होना सम्भव है तो श्री वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा की मूर्ति रूप आकृति से प्रभु के स्वरूप को समझने और उसकी भक्ति-पूजा में संदेह क्यों ? स्थानक वासी-ढूंढक अपने मृत साधुओं की जयंजतियां, वर्षियां, शताब्दियां बड़े समारोह पूर्वक मनाते हैं जबकि उनकी आत्मा में भाव निक्षेप का इस समय सर्वथा अभाव है । इस समय उस साधु के नाम का भी वह व्यक्ति विद्यमान नहीं है और उन्हें स्थापना एवं द्रव्य निक्षेप मान्य हैं ही नहीं और इन दोनों निक्षेपों के सिवाय उनकी जयंतियां, वर्षियां, शताब्दियाँ मनाना भी उनकी मान्यता के विरोधी हैं फिर वे ऐसा क्यों करते हैं ? इस के समर्थन में वे नंगमनय का सहारा लेते हैं। उनका कहना है कि भूतकाल में हो गए साधु को हम इस समय साधु मानकर उसके प्रति श्रद्धा-भक्ति के निमित्त उनकी जयंतियां आदि मनाते हैं। __ प्रश्न यह है कि अभव्य मनुष्य भी वेशधारी साधु होता हैं उले भाव से कभी भी साधु के गुण प्राप्त नहीं होते क्योंकि उसमें ऐसी योन्यता का सर्वथा अभाव है और आपके पास साधु के अभव्य, भव्य होने की कोई कसौटी भी नहीं है । जिस मत साध की आप जयंति मनाते हैं यदि वह साधु अभव्य था तो उसकी जयंति मनाने से उसमें नेगमनय का भी अभाव होने से आपके इस सिद्धांत से भी विरोध आता है। इसलिए आपको ऐसा करना भी आपके सिद्धांत से सर्वथा अनुचित है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि बाकी के तीन निक्षेप उन्हीं के वन्दनीय और पूज्यनीय है जिनका भाव निक्षेप पूजनीय है। इसलिए श्री भगवती सूत्र, श्री उववाई और श्री रायपसेणीय आगमों में श्री तीर्थंकर देव तथा अन्य महर्षियों का नाम निक्षेप वन्दनीय और पूजनीय' कहा गया है क्योंकि उनका भाव निक्षेप पूजनीय है। परन्तु अभवि दूरभवि, मिथ्यादृष्टि अथवा भाव-चारित्र के बिना साधु को साधु मानकर पूज्य मानना घोर मिथ्यात्व है। ऐसा हम पहले भी लिख आए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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