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पूज्य मानना स्वीकार नहीं करते तो आपने उस मुर्दे की भक्ति क्या मानकर को? क्योंकि जड़ की भक्ति में तो आप पाप मिथ्यात्व और अधर्म मानते हैं। भूतकाल में हो गये साधुओं की जयंतियां मनाते हैं । इससे भी द्रव्य निक्षेप की मान्यता की पुष्टि होती है।
(5) साधुओं के नाम की माला जाप आदि करते हो। उनके नाम की जय बोलते हो। इससे आपने नाम निक्षेप भी पूज्य मान लिया।
(4) वेश से भी और भाव से भी साधु को मानना तो आप स्पष्ट स्वीकार करते ही हैं। इसलिए (1) भाव निक्षेप को पूज्य मानना आपको स्वीकार ही है।
(1) अतः यह सिद्ध हुआ कि आपका चारों निक्षेपों को पूज्य न मान कर मात्र भाव निक्षेप पूज्य मानने का सिद्धांत होते हुए भी सबमें भावनिक्षेप विद्यमान हो ऐसा निश्चित नहीं। अतः साधु के चारों निक्षेपों को बराबर पूज्य माने बिना छुटकारा नहीं है और मजे की बात तो यह है कि साधु के चारों निक्षेपों की पूज्य मान्यता को आचरण में लाते हुए भी तीर्थंकर के चारों निक्षेप मानने से इनकार कर रहे हैं और उनके मात्र भाव निक्षेप की मान्यता के थोथे आधार पर श्री जिनप्रतिमा की पूजा भक्ति का निषेध कर अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दे रहे हैं ।
(2) परन्तु कौन से साधु का भाव निक्षेप शुद्ध है इसे परखने का कोई भी माप दण्ड आपके पास नहीं है और यह भी स्पष्ट है कि जिस साधु के भावनिक्षेप का सर्वथा अभाव है ऐसे अभवी, भवी मिथ्यादृष्टि और दूरभवी भाव से मिथ्यादृष्टि होने से उसके चारों निक्षेप अपूज्य हैं। अथवा सम्यग्दृष्टि होते हुए भी चारित्र मोहनीय के उदय के कारण किसी साधु में चारित्र का अभाव होने से साधु के गुणों का अभाव अवश्यंभावी है । वेशधारी साधुओं में किस का भाव निक्षेप शुद्ध है किसका अशुद्ध है इसको जानने के लिए भी इस समय कोई विशिष्ट ज्ञान वान विद्यमान नहीं है तो हर. एक साधु वेशधारी में शुद्ध भाव निक्षेप मान कर अपनी आत्मवचना ही तो कर रहे हैं।
(3) यदि कोई मनुष्य मिथ्यादृष्टि साधु वेश लेकर साधु बन जाता है तो उसका ज्ञान और चारित्र भी मिथ्या है। यह जैनदर्शन का अबाध्य सिद्धांत है और इस सिद्धांत को सब जैन संप्रदाय एकमत से स्वीकार करते हैं । मूर्ति विरोधी जैन भाई भी इसे स्वीकार करते हैं । तो ऐसे साधु को भाव साधु (साधु के साक्षात् गुण) मान कर उसे वंदना नमस्कार करना भी तो मिथ्यात्व ही है । मात्र इतना ही नहीं परन्तु ऐसे साधुओं की भक्ति प्रशंसा से उनका उन्मार्ग में धकेलने में सहायक बनकर उन्हें प्रोत्साहित करके जैन शासन की हानि का भी कारण बन रहे हैं।
(4) यदि यह बात मान भी ली जावे कि साधु वेशधारी मुर्दे में साधु के गुणों की कल्पणा करके तथा जीवित मिथ्यादृष्टि मनुष्य साधु वेशधारी के आत्मा में साधु के गुणों की कल्पणा करके आप उनकी पूजा भक्ति करते हैं । तो प्रश्न होता है कि यदि
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