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________________ 164 (भाव निक्षेप) अवस्था ही है और न बाह्य शरीर में ही साधु की क्रियाएं विद्यमान हैं वापके सिद्धान्त के सर्वथा प्रतिकुल होने पर भी ऐसा क्यों किया ? (4) किसी साधु का चित्र, फ़ोटो, मूर्ति अथवा स्मृतिस्तूप (समाधिस्थल पर निर्मित छत्री तथा उसमें उनके पाषाण निर्मित जड़ चरण) है । उस साधु पर आप को अनन्य भक्ति और श्रद्धा भी है तो क्या आप उस जड़ चित्र, फ़ोटो, मूर्ति अथवा स्मृतिस्तूप की बेअदबी (अपमान) करेंगे ? अथवा किसी दूसरे के द्वारा उस का होता हुआ अपमान बरदाश्त करेंगे । आप कहेंगे कदापि नहीं । चित्र आदि तो जड़ हैं साधु के गुणों का उनमें सर्वथा अभाव है यह बात प्रत्यक्ष होते हुए भी आपको उनके जड़ चित्र आदि का अविनय क्यों अनुचित प्रतीत होता है और आपके मन को ठेस क्यों लगती है ? इससे स्पष्ट है चित्र आदि के अपमान से आपने अपने पूज्य साधु का अपमान माना । काग़ज के टुकड़े अथवा पाषाण का नहीं। (1) तो इससे यह बात स्पष्ट है कि साधु के वेश में सब साधु नहीं होते तो भी आप अपनी मान्यता के प्रतिकूल सब साधुवेशधारियों को वन्दना आदि करने में धर्म मानते हो। (2) उन के चित्र, फ़ोटो, मूर्ति, स्मृतिस्तूप के अपमान को अपने साधु का अपमान मानते हो। (3) आत्मा में भाव से साधु के गुण होने पर भी वेश त्यागी साधु अथवा साधु के वेश बिना महापुरुष को साधु मानकर वन्दना नहीं करते और न ही साधु के रूप में उसका सत्कार करते हो। (4) साधु के मुर्दे का जीवित साधु से भी बढ़-चढ़कर सत्कार करते हो और उनके प्रति हिंसामय आडम्बर पूर्वक भक्ति का प्रदर्शन करने में अपने आपको कृतकृत्य और धन्य मानते हैं। थोड़ा और सोचिए (1) साधु जब ध्यानावस्था में अथवा मौन अवस्था में होता है, उस समय उस से उपदेश सुनना, प्रश्नों के उत्तर पाना तथा शंका समाधान करना सम्भव नहीं है। तब आप उन्हें वन्दना करके क्या अनुभव करते हैं ? यही न कि आपने साधु का दर्शन कर धर्म लाभ किया है। (2) बीमार, गूंगा, बहरा, अंधा, अनपढ़ अथवा जड़ बुद्धि कोई भी वेशधारी साधु हो । चाहे उसे पढ़ा लिखा कुछ भी याद न हो, न ही वह उपदेश देने की क्षमता रखता हो अथवा योग्यता होते हुए भी उपदेश आदि देने में असमर्थ हो। कोई भी वेशधारी साधु हो अथवा साध्वी हो, उनसे किसी भी प्रकार के लाभ प्राप्त होने की संभावना न होते हुए भी उन्हें पूज्यमान आप सब को वन्दन, भक्ति, सत्कार आदि करके धर्म तो मानते ही हैं न ? अर्थात् साधु वेशधारी में गुण-अवगुण, योग्यताअयोग्यता, उपदेशादि देने की समर्थतता-असमर्थतता की अपेक्षा रखे बिना उन्हें आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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